सत्य कथा सत्य से
प्रेम व्यथा प्रेम से
अधिक बढ़ गई ।
रूपहले बौर झर न जायें,
बने रहें ।
आम्र रस सृष्टि
भले न हो ।
सूनी डालों पर
कुहासे घिरे
ओस भरे
आशा बंध
(मानस व्यथा के प्रतीक)
पतझर की सुनहली धूल
आँचल में समेटे रहें,
कोयल न बोले ।
तंतुवाय सा
मैं-अपने ही जाल में
फँसा रहे,
सूरज चाँद तारे भी
उसी में उतर आएँ ।
ओ छिछले जल में
वंशी डालने वाले,
ये कीड़े मकौड़े
सांप घोंघे हैं ।
जिन्हें तुम मछलियाँ
रुपहली कलियाँ समझे हो ।
जल अप्सरियाँ
रत्न आभाओं में लिपटीं
अमेय गहराइयों में
रहती हैं ।
यदि निर्मल
मुक्ताभ अतलताओं से
सुनहली किरणों सी
जल देवियाँ
कभी बाहर
लहरों पर तिरने आ जायें,
तो यह नहीं
सत्य सत ही होता है,
और छिछली तलैया में डूबकर
तुम फेन के मोती चु गो ।
ओ मेरे रूप के मन,
तेरी भावना की गहराइयाँ
अरुप हैं ।