यह वन की आग है ।
डाल डाल
पात पात
जल रहे हैं ।
कोपलें
चिनगियों-सी
चटक रही हैं ।
शुभ्र हरी लपटें
लाल पीली लपटें
ऋतु शोभा को
चूमती चाटती
बढ़ती जाती हैं...
आनंद सिन्धु
सुलग उठा है ।
ओ वन की परियो,
गाओ ।
यह अमरों का यौवन है ।
अपने अंगों से
धूपछाँह
खिसक जाने दो ।
नए गंध वसन बुनो,
नए पराग में सनो ।
प्रभात आ गया ।
ओ वन पाखियो,
गाओ ।
यह नया प्रकाश है ।
वन लपटों से नए पंख माँगो,
तुम मन के नभ में उड़ सको,
मर्म में बस सको,
हृदय छू सको ।
अब नया आकाश ही
नीड़ हो,
उड़ान ही
स्वप्न शयन ।
यह आग शोभा ही में
सीमित न रहेगी,
फागुन लाज ही में
लिपटा न रहेगा ।
सांसें आग न बरसाएँगी,
ओंठ ओंठ न जलाएँगे ।
अमृत पीते रहेंगे हम,
नए पराग सूँघेंगे ।
यह मिट्टी ही
शाश्वत है,
असीम है,
चैतन्य है ।
प्राणों के पुत्र हम,
स्वप्नों के रथ पर आएँगे;
रस की संतानें,
अनंत यौवन के गीत गाएँगे ।
भावों का मधु पीएंगे,
मदिर लपटों का
प्रकाश संचय करेंगे,
हमने मृत क्षणों में से
अमृत क्षण चुने है ।