लज्जा नम्र
भाव लीन
तुम अरुणोदय की
अर्ध नत
शुभ्र पद्म कली सी
लगती हो ।
औ मानस सुषमे,
प्रभात से पूर्व का
यह घन कोमल अंधकार
तुम्हारा कुंतल जाल सा
मुझे घेरे है ।
सामने प्रकाश के
पर्वत पर पर्वत
खड़े हैं ।
उनकी ऊँची से ऊँची
चोटियों के फूलों का मधु
मेरा गीत भ्रमर
चख चुका है ।
अब, मन
तुम्हारी शोभा का प्रेमी है,
तुम्हारे चरण कमलों का मधु पीकर
आत्म विस्मृत हो
वह गुंजरण करना
भूल जाना चाहता है ।
मन का गुंजरण
थम जाने पर
तुम्हारा शुभ्र संगीत
स्वत: सूर्यवत्
प्रकाशित हो ।