ओ आत्म व्यथा के गायक,
विश्व वेदना के पहाड़ को
तिल की ओट कर,
अपने क्षुद्र तिल-से दुख का
पहाड़ बनाकर
विश्व ह्रदय पर
रखना चाहते हो ?
अहंता में पथराई
निजत्व की दीवार तोड़ी,
यह वज्र कपाट
तुम्हें बंदी बनाए है ।
आत्म मोह के
इस घने अंधियाले
वन के पार
नये अरुणोदय के
क्षितिज खुले हैं ।
जहाँ
ममता अहंता और
आत्म रति के कृमियों को
पैरों तले रौंदते-कुचलते
असंख्य चरण
श्रम स्वेद के पंक में सने-
निरंतर
आगे बढ़ रहे हैं ।
ओ निजत्व के वादक,
इस अरण्य रोदन से लाभ ?
अपने पर
आँसू मत बहाओ ।
अरण्य और सत्य के बीच
कांति धैर्य और निष्ठा की
दुर्भेद्य मेखला है,
जिसके पार
तेरा रिक्त रुदन
नहीं पहुँचेगा ।
वहाँ,
अपने सुख दुख भूलकर
प्रबुध्द मानवता
सुनहले अंतरिक्षों में
नवीन
भू रचना की नींव'
डाल रही है ।