तुम
किरणों के मुक्ताभ प्यालों में
सुनहली हाला लाई हो !
मेरा हृदय
शुभ्र पद्म सा खिल उठा है !
उसमें चंद्रकला ने
अंत: प्रेम का
रुपहला नीड़ बना लिया है !
पिघली आग सी हाला
नहीं पीएगी
वह, अमृत पीती है !
ओ सुनहली किरणों,
तुच्छारा स्वागत करता हूँ,
तुम ज्ञान नील गवाक्ष से
मुझ पर बरसती रहो !
यह हीर रश्मि
चन्द्रकला
परात्पर ज्योति है !
उसे मेरी
अंतर रचना करने दो,
वह अनन्य प्रेयसी है !
तुम
अपने वैश्व ऐश्वर्य से
मेरे तन मन संवारो,
तुम्हारे स्वर्णिम पंखों पर
मैं अनंत शोभाओं के
नि:सीम प्रसारों में विचरण करूँ
नव प्रभात का दूत बन सकूँ !
यह सुभ्र चंद्रकला
रजत पावक का कुंड है !
अचेतन काले सिन्धु में
इसकी असंव्य लपटें
कूद पड़ी हैं !
प्रेम, आनंद और रस का रूप
बदल गया है !
ह्रदय
शांति की स्वच्छ अतलताओं में
लीन होता जा रहा है !
विश्व कहाँ खो गया है!
देश काल ? जन्म मरण ?
ओ चंद्रकले,
केवल अमृतत्व ही अमृतत्व
अनिर्वचनीय
अस्तित्व ही अस्तित्व
शेष है !
मेरी पाद पीठ
अंधकार है,
जहाँ तुझे
खड़ा रहना है !