श्यामल मेघ
रूपहले सूपों की तरह
सिन्धु जल की
निर्मलता बटोरकर
तुम पर उलीचते रहे ।
ओ सुनहली आग,
अविराम वृष्टि से
धुलने पर
तुम्हारी दीप्ति बढ़ती गई ।
ओ स्वच्छ अंगों की
शरद ।
तुम्हारे लावण्य का स्पर्श
मुझसे सहा नहीं जाता । _
स्वप्न गौर शोभे,
ओ शीत त्वक् अग्नि ।
धुली अँधियाली के
रेशमी कुंतल,-
स्निग्ध नीलिमा नत
चितवन,
रक्त किसलय अधर
नवल मुकुलों के अंग ।-
ओ गंध मुग्ध फूल देह,
दुग्ध स्नात, सौम्य
चंद्रमुख
वसंत ।
तुम्हारा रूप देख
सूरज, नत मुख,
सहम गया ।
उसकी रेशमी किरणें
पक्षियों के रोमिल पंखों सी
सिमट गईं ।
लो,
साँझ उषाएँ
प्रसाधन लिए
द्वार पर खडी हैं ।
ताराएँ
पलक मारना
भूल गई हैं ।
ओ सुखद, वरद,
शरद ।
आनंद
तुम्हारी शुभ्र सुरा पी
अवाक् है ।