सिन्धु मेरी हथेली में समा जाते हैं,
उन्हें पी जाता हूँ मैं,
जब प्यासा होता हूँ ।
प्राणों की आग में गल कर,
मैं ही उन्हें भरता हूँ ।
जब
सूख जाते हैं वे ।
सोने के दर्पण सी दमकती
प्राणों की आग,
जिसमें आनंद
मुख देखता है ।
मुख,-चूर्ण नील अलकों घिरा,
अनिमेष, प्रेम दृष्टि भरा
जो ज्ञान को हृदय देती है ।
अधर, अग्नि रेख से लाल
तृप्ति चूमती है जिन्हें ।
मेरा ही मन बनता है
वह मुख,
जब मैं तुम्हें
स्मरण करता हूँ ।
मेरा ही मन बनता है
वह सुख,
जब मैं तुम्हें
वरण करता हूँ ।