ओ अन्धकार के
सुनहले पर्वत,
जिसने अभी
पंख मारना नहीं सीखा,
जो मानस अतलताओं में
मैनाक की तरह पैठा है,
जिसमें स्वर्ग की'
सैकडों गहराइयाँ
डूब गई हैं ।
मैं आज
तुम्हारे ही शिखर से
बोल रहा हूँ ।
तुम, जिससे
स्वप्न देही
शंख गौर ज्योत्स्नाएँ
कनक तन्वी
अहरह कांपती
विद्युल्लताएँ'
भावी रंभा उर्वशियों सी
फूल बाँह डाले
आनंद कलश सटाए
लिपटी हैं,
ओ अवचेतन सम्राट,
यह नया प्रभात
शुभ्र रश्मि मुकुट बन
तुम्हारे ही शिखर पर
उतरा है ।
तुम सत्य के
नये इंद्रासन हो ।
यह नाग लोक का
चितकबरा अंधकार
तुम्हारा रथ है ।
शची
रक्त पद्म पात्र में
अनंत यौवन मदिरा लिए
खड़ी है ।
रंभा मेनका
उसीकी परछाई हैं ।
ओ हेम दंड नृप
तुम विष्णु के अग्रज हो,
यह आनंद पर्व है,
अपने द्वार खोलो ।
इन नील हरी
पेरोज घाटियों में
फालसई मूँगिया प्रकाश
छन कर आ रहा है ।
मयूर
रत्नच्छाय बर्हभार खोले हैं ।
मोनाल डफिए
अँगड़ाई लेकर
पंखों का इंद्रधनुषी ऐश्वर्य
बरसा रहे हैं,
एक नया नगर ही बस गया है ।
ओ मुक्ताभ,
यह नया देश, नया ग्राम
तुम्हारी राजधानी है ।
हृदय सिंहासन
ग्रहण करो ।