ओ अवाक् शिखरो,
भू के वक्ष-से उभरे,
प्रकाश में कसे,
दृष्टि तीरों-से तने,
हृदय मत बेधो,
मर्म मत छेदो ।
कौन रहश्चंद्र था
क्षितिज पर,
कैसा तमिस्र सागर ?
कव का उद्दाम ज्वार ।
धरती के उपचेतन से
उन्मत्त हिल्लोलें उठ
अँगूठे के बल
खड़ी की खड़ी रह गईं ।
नील गहराइयों में डूबी
मन की
अवाक् ऊंचाइयों पर
शुभ्र चापें सुन पड़ती हैं ।
फालसई सोपानों पर
ललछौंहे पग धर
उषाएँ उतरती हैं ।
ओ स्वर्ण हरित छायाओ,
इन सूक्ष्म चेतना सूत्रों में
मुझे मत बाँधो ।
मैं गीत खग हूँ,
उड़ता हूँ,
ज्योति जाल में
नहीं फंसूँगा ।
ऊंचाइयों को
समतल में बिछा,
गहराइयों को
समजल में डुबा,
इंद्रधनुषी तिनकों का
नीड़ बसा
कलरव बरसाऊँगा ।
नील हरी छाँहों में छिप
स्वप्नों के पंख खोल
धरती को सेऊँगा ।