मेरी दुर्बल इंद्रियाँ
तुम्हारे आनंद का उत्पात
नहीं सहेंगी,
उन्हें वज्र का बनाओ !
तुम्हारा आनंद
समुद्री अतिवात है,
मेरे रोम रोम
दिशाओं में शुभ्र अट्टहास भर
जग की सीमा से टकराकर
मंथित हो उठते हैं ।
मन के समस्त दुर्ग
यम नियम की दीवारें
टूट कर
छिन्न भिन्न हो गई !
तुम्हारे उन्मत्त शक्तिपात की
रति क्रीड़ा के लिए
मेरी कोमल तृणों की देह
लोट पोट हो
बिछ बिछ जाती है !
तुम कामोन्मत्त
प्रेमोन्मत्त पगों से
उसे रौंद कर
जीवन विह्वल
बना देते हो !
सौ सौ अग्नि लपटों में उठ
मेरी चेतना
सजग हो उठती है !
तुम्हारा विद्युत् आनंद
भाव प्रलय मचाकर
नयी सृष्टि करता है !