शपथ !
अशुभ न करूँगा,
असुंदर न वरूँगा,
तुम मुरझा जाती हो !
ओ भावना सखी,
तुमने मुझ पर
सर्वस्व
वार दिया !
मैं दूसरों पर निछावर हो सकूँ !
प्रीति चेतने,
जीवन सौन्दर्य
तुम्हारी छाया है !
बिना स्पर्श
निर्जीव, निष्प्राण
हो उठता !
रिक्त गुंठन है
स्त्री की शोभा,
रूप का झाग !
मैं उससे न बोलूँगा,
न छूऊँगा,-
वह देह बोध ही बनी रही तो !
पथ रोध है
देह बोध,
भूत बाधा !
ओ प्राण सखी,
स्वप्न सखी,
तुम्हारा लावण्य,
अमृत निर्झर
उतरता है
चंद्र किरण
रथ से !
बिना छुए
रोमांच हो उठता,
बिना बोले
मन समझ लेता है !
अदृश्य स्थल है यह,
गुह्य कुंज,
गंध वन,
जहाँ मिलते हैं हम !
शाश्वत वसंत.
अनंत तारुण्य
अन्निद्ध सौन्दर्य
पहरा देते हैं यहाँ !