मैं सूर्य की किरणें दुहूँ
तुम चाँद की ।
मैं तुम्हें प्रकाश हूँ
तुम प्यार ।
मैं उच्च पर्वत शिखरों से
बोलूं
जहाँ पौ फटने के पहिले
फालसई नीलिमाओं के कुंज में
उषा की सलज लालिमा में लिपटी
श्वेत कमल कली सी
शांति, मौन सोई है ।
तुम सागर की गहराइयों से गाना,
जहाँ फेनों के मोती डालती
लहरों पर
रुपहली चंद्र ज्वाल तरी का
मोहित गवाक्ष खोले
स्तनों की सतरेंग छाया में लिपटी
स्वप्न पंख
भावना अप्सरी रहती है,
अनिमेष शोभा में जगी ।
समुद्र तल में अनेक रत्न हैं,
जिनके मूल रंग
और आदि ज्योति
ऊपर की अमलताओं में-
हीरक झरनों के सूतों सी
दमकतीं
सूर्य किरणों में हैं ।
चन्द्रमा का
शुभ्र पीत पावक भी
सूर्य प्रकाश का ही
नवनीत है ।
सूर्य चंद्र
सत्य ही के वत्स हैं
शांति और शोभा
श्रद्धा और भक्ति
उसी की धेनुएँ हैं ।
ये किरणें भी
कामधेनु हैं,
जिनके स्तनों से
धारोष्ण प्रकाश
मधूशीत अमृत
बहता है ।
जो आनंद,
प्रेम सत्य ही का दुग्ध है,
जिसे पीकर
सूर्य चंद्र पलते हैं ।
वही
प्रकाश और अमृत है ।