सीमा और क्षण को
खोज कर हार गया,
कहीं नहीं मिले ।
ओ नि:सीम
शाश्वत,
मैं रिक्त और पूर्ण से
शून्य और सर्व से
मुक्त हो गया ।
जहाँ कुछ न था,
कुछ-नहीं भी न था,
उसके गवाक्ष से
स्वत: ही
सुनहली अलकों से घिरा
तुम्हारा मुख दिखाई दिया ।
तुम्हारी अमित स्मिति से
शोभा, प्रीति और आनंद
स्वयं उदित हो गए ।
अकूल अतल शांति
साँस लेने लगी,
जिसके
उठते-दबते वक्ष पर
स्वर्ग मर्त्य मैत्री के
दो अमृत गौर कलश
शोभित थे ।
तुम्हारे सर्वगामी
सहल स्थिर
रश्मि चरणों पर
दिशा काल
ज्ञान शून्य पड़े थे ।