मैंने
हिमालय के
शुभ्र श्वेत मौन को
फूँका,
मानस शंख से
छोटा था वह ।
सूरज ने प्रकाश
चाँद ने चाँदनी लुटाई,
हिमालय की सतरंग देह
मेरी छाया निकली ।
स्वर्ग शोभा
कनक गौर उभरे उरोजों को
पीन जघनों से सटाए
सोई थी,
छेड़कर देखा,
कामना तृप्ति से
बौनी थी ।
ऊषा आई, साँझ आई,
वैदिक ऋषि और नये कवि
हिमालय की
उलटी हथेली सी सीप
उस मोती से सूनी थी
जिसे प्रेम ने
हृदय को सौंपा था ।