ओ आत्म नम्र,
तुम्हें ज्वालाएँ
नहीं जलातीं ।
तुम्हारी छंदों की पायलें
उतारे दे रहा हूँ,
तुम स्वप्नों के पग धर
चुपचाप भाव कोमल
मर्म भूमि पर चल सको ।
तुम्हारी चापें न सुनाई दें,
पदचिह्न न पड़ें ।
बाहर हालाहल सागर है
विद्वेष विष दग्ध
सहस्रों उफनाते फन
फूत्कार कर रहे हैं ।
उनका दर्प शील के चरण धर
चुपके पदनत करो ।
तुम्हीं हो वह हालाहल,
फन, और फूत्कार,
अपने से मत डरो ।
तुम्हीं हो शील,
त्याग, प्रेम अनजान
मत बनो ।
तुम कांटों के वन में
फूलों के पग धर
नि:संशय विचरो,
घृणा का पतझर
वसंत बनने को है ।
लोक चेतना के व्यापक
रुपहले क्षितिज खुले हैं,
तुम रचना मंगल के पंखों पर
उन्मुक्त वायु में निशब्द
विहार करो,
छंदों की पायलें
उतार रहा हूँ ।