रघुराम राजन. रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के भूतपूर्व गवर्नर. यूं तो हम भारतीयों का रिज़र्व बैंक के गवर्नर से साबका सिर्फ एक स्थिति में पड़ता रहा है. जब हम नोटों पर उनके दस्तखत देखते हैं. इसके अलावा जनता को कतई फर्क नहीं पड़ता कि रिज़र्व बैंक का गवर्नर क्या चीज़ होता है. लेकिन रघुराम राजन के केस में ऐसा नहीं रहा.
सोशल मीडिया पर कूल दिखने के लिए ही सही लेकिन लोगबाग इकोनॉमी, जीडीपी, टैक्स रिफॉर्म जैसी बातें कर लेते हैं आजकल. फिर नोटबंदी का परमाणु बम फोड़कर मोदी सरकार ने जनता को एक तरह से मजबूर किया कि वो इकोनॉमी पर भी बोलें. ऐसे में रघुराम राजन का नाम बार-बार सुनाई देने लगा.
हालांकि वो उस महान तारीख से पहले ही गवर्नर पद से रुखसती पा चुके थे लेकिन ज़िक्र उनका हर जगह मौजूद रहा. कभी उनकी ‘हिटलर’ वाली टिप्पणी विवादों में रही तो कभी उनकी ‘अंधों में काणा राजा’ वाली मिसाल.
हाल ही में उनके लिखे आर्टिकल्स का एक संकलन किताब की शक्ल में प्रकाशित हुआ है. ‘आई डू, व्हॉट आई डू’ के नाम से. ‘द वीक’ मैगज़ीन ने इस बार उन पर कवर स्टोरी की है. विस्तृत वार्तालाप किया है. उसी से चुनकर कुछ बातें लाए हैं आपके लिए.
नोटबंदी पर:
जो सबसे अहम सवाल उनसे किया गया वो ज़ाहिर है नोटबंदी के बारे में था. अपनी किताब में राजन ने साफ़ तौर से ये लिखा है कि नोटबंदी के फैसले में उनकी शिरकत नहीं थी. वो ये भी कहते हैं कि उन्होंने इसके नतीजों के प्रति अपनी चिंताएं भी बता दी थीं. RBI ने एक नोट भी लिखा था, जिसमें नोटबंदी के विकल्प सुझाए गए थे. न सिर्फ ये, बल्कि ये भी बताया था कि अगर सरकार इस कदम को उठाती है तो उसे कितना समय चाहिए होगा इसे लागू करने के लिए. जब उनसे पूछा गया कि इस पर सरकार की क्या प्रतिक्रिया थी तो वो बोले,
“मुझे उम्मीद थी कि अगर सरकार नोटबंदी करने का फैसला ले ही लेती है, तो वो हमारे सुझावों पर गौर ज़रूर करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ये मेरे ऑफिस छोड़ने के बाद हुआ. एक बात तो साफ़ है. आप किसी भी अर्थशास्त्री से पूछ लीजिए. वो यही कहेगा कि जब तक आप सारे नए नोट छाप न लो, नोटबंदी मत करो.”
आगे वो ये भी कहते हैं,
“जिस दिन आप नोट बंद कर देने का ऐलान करो, उस दिन आपकी इतनी तैयारी होनी चाहिए कि आप कम से कम कैश लेन-देन में इस्तेमाल होने वाली तमाम करंसी को रिप्लेस कर सको. आप सारी करंसी नहीं रिप्लेस कर रहे, क्योंकि कैश के कुछ हिस्से का लेनदेन नहीं होता.”
RBI की निर्णय लेने की आज़ादी पर:
अपनी किताब में राजन बार-बार एक बात का ज़िक्र करते आए हैं. RBI की स्वतंत्रता का. वो कहते हैं कि RBI गवर्नर सिर्फ एक ब्यूरोक्रेट नहीं होता. राजन से इस इंटरव्यू में पूछा गया कि जब आप और RBI नोटबंदी के फेवर में नहीं थे तो ये किसकी सलाह पर हुआ? और क्या इसका ये मतलब नहीं कि RBI को एक संस्था के रूप में कोई आज़ादी नहीं है? जवाब में राजन कहते हैं,
“असल सवाल ये है कि क्या सरकार बिना RBI की सहमति से नोटबंदी कर सकती है? जिसका जवाब है, हां कर सकती है. 1978 में भी ऐसा ही कुछ हुआ था. ऐसे तरीके मौजूद हैं जिनसे RBI को बाईपास कर के आगे बढ़ा जा सकता है.”
नोटबंदी के असर पर:
सवाल: नोटबंदी की सफलता या असफलता को आप कैसे आंकते है?
जवाब: मुझे लगता है कि टैक्स कलेक्शन पर इसके पड़े असर को आकने के लिए हमें थोड़ा इंतज़ार करना पड़ेगा. आर्थिक सर्वे में नए टैक्सपेयर्स की बात की गई है. टैक्स कलेक्शन में 10,000 करोड़ की बढ़ोतरी होने की बात कही गई है. अगर ये रकम पहली किस्त है, तो सही है. लेकिन अगर ये मुकम्मल आंकड़ा है, तो बहुत कम है.
उन्होंने आगे कहा,
“हमें लंबे समय में पड़ने वाले असर पर नज़र रखनी होगी. जब नोटबंदी हुई, हम 7.5 से 8 की दर से जा रहे थे. उससे हम काफी नीचे आ गए. इसकी एक वजह यकीनन नोटबंदी ही है. हमें ये ध्यान रखना होगा कि उस वक़्त पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था मज़बूत थी. उस हिसाब से हमें भी ऊपर जाना चाहिए था. लेकिन हम नीचे लुढ़क गए. क्या इसके लिए सिर्फ नोटबंदी ज़िम्मेदार है. शायद नहीं.
मुझे लगता है इसके लिए तीन चीज़ें ज़िम्मेदार हैं.
1. बैंकों पर दबाव और बांटें गए कर्जों की बुरी हालत.
2. नोटबंदी का झटका.
3. GST के प्रति संशय.”
मंत्रालय और RBI के बीच की तनातनी पर:
रघुराम राजन नौकरशाही की दखलअंदाज़ी पर बोलते रहे हैं. इस इंटरव्यू में भी उन्होंने कहा,
“वित्त मंत्रालय और RBI के बीच हमेशा टेंशन रहती है. मंत्रालय को लगता है कि RBI उसका ही एक अंग है. RBI समझती है कि वो एक स्वतंत्र संस्था है. एक तरफ तो राज्यों के मुख्यमंत्री RBI गवर्नर को ‘सर’ कह के बुला रहे होते हैं, वहीं दूसरी तरफ मंत्रालय के सेक्रेटरी तक आप पर हुक्म चलाने का दावा करते हैं.”
‘अंधों में काणा राजा’ वाली कंट्रोवर्सी पर:
तरक्की के खुशफहम दावों पर टिप्पणी करते हुए कभी रघुराम राजन ने ये बात कही थी. कहा गया कि वो अपने काम से काम रखना छोड़कर राजनीति क वक्तव्य दे रहे हैं. इसके बारे में पूछे जाने पर वो बोले,
“मैंने ये बात अप्रैल 2016 में कही थी. तबसे अब तक इकोनॉमी की प्रोग्रेस देख लीजिए. हमने हर क्वार्टर में पहले से ज़्यादा ख़राब प्रदर्शन किया है. मैं यही कहना चाह रहा था. हमें आत्मसंतुष्ट नहीं होना चाहिए. हमारे सामने कई दिक्कते हैं. हम उन्हें भुलाकर अपनी छाती पीटने लग जाते हैं और कहते हैं कि देखो हम कितनी तरक्की कर रहे हैं.
आगे बोले,
इस बात पर ध्यान ही नहीं देते कि और कितनी ही चीज़ें करनी बाकी हैं. ये छाती पीटना आगे चल के हमें ही दुख देता है. आपकी तारीफ़ औरों को करने दीजिए. अपना ढोल खुद न पीटीए. मीडिया कुछ दिनों में भूल जाएगा लेकिन इन्वेस्टर्स याद रखेंगे. मेरा पॉइंट यही है कि हमें थोड़े से में खुश नहीं हो जाना चाहिए. मैंने इसी बात को समझाते हुए मिसाल दी थी जिसे गलत समझा गया.”
बैंक ने जो कर्ज़ बांटे और बड़े डिफॉल्टरों पर:
विजय माल्या वाले कांड पर जब उनसे बात की गई तो बोले,
“RBI के पास कोई ऐसी सुविधा नहीं है कि वो कर्ज़ देने की व्यवस्था की खोजबीन कर सके. मेरा जोर सिस्टम में मौजूद असली क्रिमिनल्स को पकड़ने पर था. हमने बड़े फ्रॉड की लिस्ट बनाकर पीएमओ को दी थी. कुछ नहीं हुआ.”
बड़े डिफॉल्टर्स पर लगाम लगाने का उपाय पूछने पर राजन ने कहा,
“हमें इनको मिलने वाले कर्जों पर लगाम लगानी होगी. कुछ लोग बार-बार बड़े लोन लेते हैं. मैं इस बात पर ध्यान रखना पसंद करूंगा कि किसी बैंक के चेयरमैन ने या किसी ख़ास अधिकारी ने अपने कार्यकाल में कितने और कितनों को लोन बांटें हैं. अगर उनमें से रिकवरी न हुए लोन्स की संख्या ज़्यादा है या किसी एक सीईओ की वजह से कुछ बैंक्स मुश्किल में हैं तो मैं उन ख़ास बंदों के खिलाफ़ कार्रवाई करने की सलाह दूंगा.”
और आखिर में सबसे बड़ा सवाल:
अब तक लोग इस उलझन में हैं कि रघुराम राजन को हटाया गया या उन्होंने खुद इस्तीफा दिया. ये संशय दूर करने की दरख्वास्त पर राजन बोले,
“मेरी तीन साल की टर्म ख़त्म हो रही थी. अक्सर लोग टर्म बढ़ा लेते हैं. लेकिन मेरे केस में सरकार की तरफ से ऐसी कोई ऑफर नहीं आई. न मेरी तरफ से ऐसी कोई इच्छा ज़ाहिर की गई. सरकार ने नहीं चाहा कि मैं रहूं, सो ये हो गया.”
साभार: द लल्लनटॉप