जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी, छोटा करके बोला जाए तो जेएनयू. जैसे ही आप जेएनयू के मेन गेट से अंदर की तरफ दाखिल होते हैं, करीब पांच सौ मीटर पर दाहिने हाथ एक ढाबा मिलता है. गंगा हॉस्टल के सामने होने की वजह से इसे नाम दिया गया है, गंगा ढाबा. गंगा ढाबा ऐसा शब्द है जो अपने आप में कई सारे मायने समोए हुए है. यह एक चाय-समौसे की छोटी सी दूकान है, जहां शाम ढलने के बाद औसत दर्जे के परांठे भी मिल जाया करते हैं. इसका दूसरा मतलब है, चाय और अंतहीन बहसें.
‘बहस’ जोकि 1969 में जेएनयू की स्थापना से इसकी संस्कृति का हिस्सा रही है. इसी किस्म की राजनीति क बहस बारे में अक्सर एक किवदंती सुनी जाती है. 70 के दशक में प्रकाश करात सीपीएम के स्टूडेंट विंग SFI से जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष हुआ करते थे. सामने एक धड़ा था फ्री थिंकर्स का जो कैम्पस में SFI के एकाधिकार को चुनौती दे रहा था. कहते हैं कि कई बार फ्री थिंकर्स के आनंद कुमार और SFI के प्रकाश करात बाज दफा मेस में खाना खाने के दौरान या फिर दूसरे सार्वजनिक मंचों पर राजनीतिक बहसों में उलझ जाते थे. वो गूगल का जमाना नहीं था. ऐसे में दोनों आदमी अपने तथ्यों को सही साबित करने के लिए अपने कमरे की तरफ भागते और किताब ला कर टेबल पर पटक देते. घंटों चलने वाली इन बहसों में मेस की टेबल पर किताबों का ढेर लग जाया करता. प्रो. आनंद कुमार याद करते हैं-
“उस दौर में जेएनयू में वाल न्यूज़ पेपर का निकला करते. SFI का अलग, फ्री थिंकर्स का अलग. अगर आप किसी सार्वजानिक मंच पर खड़े हैं तो आप हर सवाल का जवाब देने के लिए नैतिक तौर पर बाध्य हैं. लोग सार्वजनिक बहसों के दौरान किताबें लेकर बैठा करते. अगर कोई अपने भाषण में किसी को गलत तरीके से कोट कर रहा होता तो इसे स्वीकार नहीं किया जाता. यूनिवर्सिटी की जनरल बॉडी मीटिंग के दौरान जब मैं मंच पर होता तो अपने एक साथी को पर्ची पर लिख कर देता कि मेरे रूम से फलानी किताब ले आओ. यह वक्ता फलाने लेख क को गलत कोट कर रहा है. दूसरे लोग भी ऐसा ही किया करते. बहस जेएनयू की संस्कृति है लेकिन आपको अपने तथ्य हमेशा दुरुस्त रखने होते थे.”
फिर से गंगा ढाबा पर लौटते हैं. गंगा ढाबा के ठेक सामने है गंगा हॉस्टल. गंगा हॉस्टल की दांयी तरफ एक खुला मैदान है. इस जगह को झेलम लॉन के नाम से जाना जाता है. झेलम लॉन वो जगह है जो जेएनयू छात्र संघ की प्रेसिडेंसियल डिबेट का गवाह बनता है. हर यूनिवर्सिटी की तरह जेएनयू में भी छात्र संघ के चुनाव होते हैं, लेकिन तरीका थोड़ा अलग होता है. यहां गुंडई और पैसे की राजनीति के लिए कोई जगह है नहीं. अगर आपने एक चुनाव में ऐसा किया तो समझिए कि अगले दस चुनाव तक आपकी पार्टी की जमानत जब्त है. कोई प्रिंटेड पोस्टर नहीं सिवाय राजनीतिक परचों के. बाकी उम्मीदवार के वोट मांगते पोस्टर पार्टी के कारकून अपने हाथ से बनाते हैं. रंग और कूंची की मदद से. कोई गाड़ी-वाड़ी का रैला निकाल कर शक्ति प्रदर्शन नहीं. शक्ति प्रदर्शन होते हैं मशाल जुलूस के रूप में.
क्या है प्रेसिडेंसियल डिबेट
जेएनयू में छात्र संघ के चुनाव से दो दिन पहले विभिन्न पार्टी के अध्यक्ष पद के प्रत्याशी एक मंच पर जुटते हैं. इस आयोजन का संचालन जेएनयू छात्रसंघ की चुनाव समिति के हाथ में होता है. रात को करीब दस बजे शुरू होने वाली यह डिबेट सुबह चार बजे खत्म होती है. छात्रों की एक बड़ी संख्या इस डिबेट को सुनने आती है. यहां प्रत्याशी आगामी चुनाव में अपने विचार और मुद्दे रखते हैं. इस मुद्दों को मुख्य तौर पर तीन खांचों में देखा जा सकता है-
1 कैम्पस के तमाम मुद्दों मसलन हॉस्टल, मेस, लाइब्रेरी, दिव्यांग स्टूडेंट को सुविधा दिलाने पर किसी प्रत्याशी की क्या राय है?
2 देश के हालिया राजनीतिक सूरतेहाल पर कोई प्रत्याशी क्या राय रखता है.
3 वैश्विक राजनीति के बारे में किसी प्रत्याशी की क्या राय है.
कैसे होती है डिबेट
जेएनयू में आपको इस डिबेट के बारे में अक्सर एक जुमला सुनने को मिल जाएगा, “This is the battle of ideas.”यह विचारों की जंग है. लेकिन इस मैराथन बहस को अंजाम कैसे दिया जाता है? दरअसल बहस को तीन राउंड में बांटा गया.
1 पहले राउंड में सभी स्पीकर आकर अपनी बात आम छात्रों के सामने रखते हैं. इस भाषण के लिए 12 मिनट का समय मिलता है. भाषण के दस मिनट पूरे होने पर पहली वार्निंग बेल बजती है. इसके बाद प्रत्याशी को दो मिनट और दिए जाते हैं ताकि वो अपना भाषण तय समय पर पूरा कर सके. अगर कोई 12 मिनट के बाद भी बोलता रहता है तो उसके माइक की आवाज बंद कर दी जाती है, लेकिन ऐसा बहुत कम मौकों पर होता है.
2 दूसरे राउंड में हर प्रत्याशी बारी-बारी से मंच पर आते हैं. उनके विपक्षी बारी-बारी से उनसे दो सवाल पूछते हैं. हर प्रत्याशी को तय समय में इन सवालों का जवाब देना होता है.
3 पहले राउंड में हर प्रत्याशी के भाषण देने के बाद से चुनाव समिति की तरफ हर प्रत्याशी के लिए आम छात्रो के लिए सवाल मंगवाए जाते हैं. एक सादे कागज पर कोई भी छात्र किसी भी प्रत्याशी से सवाल पूछ सकता है. हर प्रत्याशी के लिए सवाल का अलग डब्बा निर्धारित होता है. सवाल की इस चिट को इन डब्बों में डाल दिया जाता है.
तीसरे राउंड की शुरुआत में हर प्रत्याशी को अपने डिब्बे में बारी-बारी सवालों की पर्चियां निकालनी होती है. इन पर्चियों पर लिखे सवालों को पहले ऑडियंस को पढ़ कर सुनाया जाता है. हर प्रत्याशी को तय समय इन सवालों जवाब देना होता है.
क्यों यह डिबेट इतनी महत्वपूर्ण है?
जेएनयू के स्टूडेंट्स बड़ी गंभीरता से प्रेसिडेंसियल डिबेट को सुनते हैं. लिंगदोह कमिटी की सिफारिश को जेएनयू छात्र समुदाय से रिजेक्ट कर दिया था. इसके बाद दो साल तक यहां लिंगदोह के खिलाफ प्रदर्शन चला. मामला कोर्ट में गया और कुछ छूट के साथ जेएनयू में लिंगदोह कमिटी की सिफारिशों को लागू किया गया. यहां के छात्र जेएनयू छात्रसंघ के संविधान के हिसाब से चुनाव करवाने की मांग करते रहे हैं. यह मुद्दा आज भी चुनावी बहस का हिस्सा बना हुआ है.
2011 में फिर से शुरू हुए चुनाव के बाद यह जेएनयू छात्रसंघ का सातवां चुनाव है. अब तक रहे 6 छात्रसंघ अध्यक्षों में से दो छात्रसंघ अध्यक्ष सिर्फ प्रेसिडेंसियल डिबेट में अपनी बहस के दम पर चुनाव जीत चुके हैं.
2012 में प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद पर समर्थन देने की वजह से जेएनयू में सीपीएम की छात्र इकाई SFI में फूट पैदा पड़ गई थी. असंतुष्ट छात्रों ने सीपीएम के इस कदम को बंगाली अस्मिता की राजनीति करार दिया था. SFI से असंतुष्ट छात्रों का नया संगठन बना डेमोक्रेटिक स्टूडेंट फेडरेशन (डीएसएफ). तमिलनाडु से आए वी. लेनिन कुमार को डीएसएफ ने अध्यक्ष पद के लिए अपना प्रत्याशी बनाया. लेनिन ने प्रेसिडेंसियल डिबेट में अपने भाषण की शुरुआत कुछ इस तरह से की-
“कुछ लोगों ने मुझसे आकर कहा कि भैया आप हिंदी में बोल लीजिए. Some of my friends told me to speak English. Friends I know only one leagues,is the leagues of human.”
भाषण की इन शुरूआती लाइनों के जरिए लेनिन ने छात्रों का दिल जीत लिया. वो SFI से अलग हो चुके थे और अब उनके सामने सिंगुर और नंदीग्राम पर सफाई देने की मजबूरी नहीं थी. कुछ ही महीने पहले बने संगठन के प्रत्याशी लेनिन कुमार ने कैम्पस की सबसे मजबूत पार्टी आल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (AISA) के उम्मीदवार ओम को नजदीकी मुकाबले में पटखनी दे दी.
दूसरा मामला कन्हैय्या कुमार का है. कन्हैय्या कुमार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की स्टूडेंट विंग AISF के उम्मीदवार के तौर पर 2015 के चुनाव में मैदान में थे. यह जेएनयू के चुनावों में यह पहली बार था जब SFI और AISF का गठबंधन टूटा था. कैम्पस में AISF के कार्यकर्ताओं की संख्या इतनी कम थी कि उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता था. प्रेसिडेंसीअल डिबेट में कन्हैया के जबरदस्त भाषण ने अपना असर छोड़ा. उन्होंने कैम्पस की तीनों बड़ी पार्टियों AISA, SFI और DSF के उम्मीदवारों की उम्मीद पर पानी फेरते हुए अध्यक्ष पद का चुनाव जीत लिया.
तीसरा उदहारण पिछले चुनाव में राहुल सोनपिम्पले का है. राहुल कैम्पस में नए खड़े हुए अम्बेडकरवादी संगठन बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट एसोशिएसन की तरफ से छात्रसंघ में अध्यक्ष पद के उम्मीदवार थे. उन्होंने लेफ्ट यूनिटी के उम्मीदवार मोहित पांडेय को कड़ी टक्कर दी थी. मोहित को मिले 1954 वोट के मुकाबले राहुल 1545 वोट लेने में कामयाब रहे थे. बाकी की तीन पोस्ट पर उनकी पार्टी तीसरे स्थान पर रही थी.
इस बार कौन-कौन हैं उम्मीदवार
इस बार के जेएनयूएसयू चुनाव की ख़ास बात है कि सभी बड़े दलों ने महिला प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है. कुल पांच महिला प्रत्याशियों के नाम इस तरह से हैं-
1 AISF– सीपीआई के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद डी राजा की बेटी अपराजिता राजा एआईएसएफ की तरफ अध्यक्ष पद पर चुनाव लड़ रही हैं. वो जेएनयू में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में पीएचडी की स्टूडेंट हैं. वो दिल्ली विश्वविद्यालय में भी सी पार्टी से छात्रसंघ चुनाव लड़ चुकी हैं.
2 लेफ्ट यूनिटी- इस बार कैम्पस में तीन बड़े वामपंथी छात्र संगठन (AISA, SFI और DSF) ने गठबंधन किया है. गठबंधन के चलते अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी AISA को मिली है. AISA की तरफ से गीता कुमारी इस सीट पर चुनाव लड़ रही हैं. गीता जेएनयू से फ्रेंच भाषा में बीए करने बाद फिलहाल जेएनयू के ही सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज से एमफिल कर रही हैं. वो दो बार स्कूल ऑफ लैंग्वेज से कौंसिलर भी रह चुकी हैं और जेएनयू में यौन उत्पीड़न की घटनाओं की जांच करने वाले जीएसकैश के लिए भी चुनाव जीत चुकी हैं. वो मूलतः हरियाणा की रहने वाली हैं.
लेफ्ट यूनिटी के तरफ से उपाध्यक्ष पद के लिए आइसा की सिमोन जोया खान, महासचिव पद के लिए एसएफआई के दुग्गिराला श्रीकृष्णा और संयुक्त सचिव पद पर डीएसएफ के सुभांशु सिंह मैदान में हैं.
3 BAPASA- बापस ने अध्यक्ष पद के लिए शबाना अली को मैदान में उतारा है. शबाना अली बंगाली मूल के हैं लेकिन उनकी परवरिश बनारस में हुई है. फिलहाल वो जेएनयू के स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स से पीएचडी कर रही हैं.
इसके अलावा इस संगठन की तरफ से उपाध्यक्ष के लिए सुबोध कुमार, महासचिव पद पर करम विद्यानाथ खुमान और संयुक्त सचिव पद पर विनोद कुमार अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं.
4 ABVP- पिछले चुनाव में संघ से जुड़े छात्र संगठन ABVP ने अपनी मजबूत मौजूदगी दर्ज करवाई थी. हालांकि उसे किसी भी सीट पर कामयाबी नहीं मिली लेकिन दो सीटों पर उसके उम्मीदवार दूसरे नम्बर रहे थे. इस बार ABVP की तरफ से निधि त्रिपाठी मैदान में हैं.
दुर्गेश कुमार उपाध्यक्ष के लिए, निकुंज मकवाना महासचिव पद के लिए और पंकज केशरी संयुक्त सचिव पद के लिए अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं. जेएनयू में साइंस और संस्कृत सेंटर पम्परागत तौर पर विद्यार्थी परिषद का गढ़ माना जाता रहा है. इस बार ABVP को साइंस सेंटर में कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है.
5 NSUI- कांग्रेस से जुड़े छात्रसंगठन NSUI ने इस चुनाव में वृष्णिका सिंह मैदान में उतारा है. इसके अलावा ज्वाइंट सेक्रेटरी के लिए अली मुद्दीन खान, जनरल सेक्रेटरी के लिए प्रीति ध्रुवे, वाइस प्रेसिडेंट के लिए फ्रांसिस लालरेम सियाम पार्टी की तरफ से दावेदारी पेश कर रहे हैं.
इसके अलावा मोहम्मद फारुख आलम निर्दलीय प्रताशी के तौर पर चुनाव मैदान में हैं. कल रात हुई प्रेसिडेंसील डिबेट में उन्होंने जैम कर तालियां बटोरी हैं. देखना हैं कि तालियों के लिए उठे हाथों में से कितने बैलेट पेपर पर दर्ज हो पाते हैं.
कल जेएनयू के चुनाव होने हैं. यहां आज भी चुनाव बैलेट पेपर पर होते हैं. छात्रसंघ के अलावा विभिन्न सेंटर के छात्र प्रतिनिधियों के चुनाव भी होते हैं. परसों शाम तक इन चुनावों के नतीजे आने की उम्मीद है.
साभार: द लल्लनटॉप