बाबा उत्पादन के मामले में अपने देश की नज़ीर दुनिया में कहीं नहीं मिल सकती. बाबाओं के अनेक प्रकार यहां मिलेंगे. अच्छे से लेकर बुरे तक. हर जाति में. हर धर्म में. उत्तर से लेकर दक्षिण तक, हर खित्ते में एक से बढ़कर एक बाबा की मौजूदगी देखी जा सकती है. ऐसे-ऐसे बाबा मिल सकते हैं, जो आपकी बाबा को लेकर अब तक की बनी धारणाओं और कल्पनाओं को मिट्टी में मिला दें. फिर एक नए तरह का बाबाई सच आपकी जानकारी में जोड़ दें.
बाबागिरी के क्षेत्र में गजब की मौलिकता और प्रयोग आपको मिलेंगे. कोई नंगा रहने वाला है, तो कोई फलां-फलां किस्म के कपड़े पहनने वाला. कोई जटाजूट-धारी तो कोई सफाचट्ट. कोई दुनिया से कटने के लिए एकांत की ओर भागता हुआ, तो कोई दुनिया को अपनी ओर खींचकर अपने एकांत में नई दुनिया बनाने वाला. कोई अकेला चलने वाला, तो कोई बाकायदे फौज लेकर चलने वाला. यही नहीं, बाबाओं के अपने कुनबे के नियमों को लेकर भी प्रयोगों में कमी नहीं मिलेगी.
मैं छिपाना जानता, तो जग मुझे साधू समझता,
शत्रु मेरा बन गया है, छल रहित व्यवहार मेरा!
आज ऐसे बाबाओं की अधिकता है, जो छिपाने में सारी मेहनत लगा डालते हैं. ये अपने आपको भगवान का भक्त और संदेशवाहक कहते हैं, लेकिन असलियत में ये काम-क्रोध-लोभ-मद जैसे दुर्गुणों से ग्रस्त होते हैं. इन कुकर्मों को ये बाबागिरी से अच्छे से ढंक लेते हैं. आज जो कुकर्म ढंकने में जितना बड़ा उस्ताद है, वो उतना बड़ा बाबा है. इन मक्कार राम-नामियों की हकीकत तुलसीदास ने बहुत पहले पेश कर दी थी-
बंचक भगत कहाइ राम के।
किंकर कंचन कोह काम के॥
हां, तो जो राम-नामी बने फिर रहे हैं, वे धोखेबाज हैं. वे धन, क्रोध और काम के दास हैं. वे रामदास नहीं हैं, कामदास हैं. धनलोलुप हैं. स्त्रीलोलुप हैं.
ये बाबा किसी आध्यात्मिक या परमार्थिक ज़़रूरत के लिए बाबा नहीं बनते. पहले के संन्यासी भी दिखावे या अपने लिए बेहतर विकल्प के रूप में इस रास्ते पर चल पड़ते थे. तुलसीदास ने इसका भी संकेत किया है-
नारि मुई गृह संपति नासी।
मूड़ मुड़ाय भए संन्यासी॥
नारी-हानि या धन-हानि हुई, तो बाबा बन गए. भीतरी प्रेरणा नहीं है ऐसी. लेकिन इच्छाएं तो रह ही जाती हैं. मौका पाते वो और भी वीभत्स रूप में ज़ाहिर होती हैं. नारी-हानि और धन-हानि का बदला बाबागिरी के रास्ते पूरा कर लेते हैं. अंधविश्वासी जनता इसका पूरा मौका इन्हें देती है.
पहले के बाबा तकनीक से इतने संपन्न नहीं थे. अब के बाबा अपने दिखाने-छिपाने के खेल में वै ज्ञान िक प्रगति का बखूबी इस्तेमाल करते हैं. पहले के बाबा पंथ-प्रभाव बढ़ाने के लिए बहुत पापड़ भी बेलते थे. अब ये बैठे-बैठे कर लेते हैं. अब का बाबा ऑडियो-वीडियो-फिल्म हर तरह की तकनीक का इस्तेमाल करने में जुटा हुआ है. पूंजीवाद, राजनीति और अ-धर्मनीति का विनाशकारी गठजोड़ आज के बाबाओं का सच हो गया है. और जनता? वो नासमझी में या मजबूरी में हर तरह का दुष्प्रभाव भोगने के लिए खुद तैयार रहती है.
बाबागिरी के आडंबर में बलात्कारी मानसिकता परंपरा से चली आई है. हर दौर में बलात्कारियों ने साधू-बाने और संन्यासी-भगल का इस्तेमाल किया है. मिथकों में झांकिए और गहरे सोचिए, तो काम-तत्व के कारनामे कम नहीं हैं. ऐसा लगेगा कि कई गलतियों का एप्रोप्रिएशन (औचित्यीकरण) किया गया है. शास्त्रों में ही नहीं, लोकसाहित्य में भी बाबाओं की स्त्रीलोलुप छवियां देखी जा सकती हैं.
लोकजीवन में ऐसे गीत हैं, जिनमें बाबाओं की छल-प्रक्रिया का वर्णन मिलता है. इन गीतों के जरिए स्त्रियां बाबाओं के चरित्र को लेकर सावधान होने का संदेश भी देती हैं. एक बाबा की स्त्री-लोलुपता को इस लोकगीत में देखिए. एक लड़की है, जिसका नया-नया विवाह हुआ है. वो अपने घर में है. संयोग से एक बाबा या फकीर, जो भी कहें, वहां आता है. गर्मी में परेशान बाबा को लड़की बैठके की शीतल हवा में गर्मी दूर करने के लिए भी कहती है. बाबा को लगता है कि ये हाथ साफ करने का बढ़िया मौका है. वो पूछने लगता है कि घर में कौन-कौन है? कहां है? घर का भेद जानने लगता है. लड़की कहती है-
सासु तौ गईं भुजिहरवा,
ननदि घर आपन गई हो न।
जेकर अहिउं मैं अइसी धनियां,
तउ निसरि विदेश गए हो न॥
(मेरी सास भड़भूजा के यहां गई हैं और ननद अपने घर यानी ससुराल गई है. जिसकी मैं स्त्री हूं, मेरा पति घर से निकलकर परदेस चला गया है.)
इतना सुनते ही वो जोगी बाबा ड्यौढ़ी तक चढ़ आया और बोला-
अतनी बचन सुन जोगिया,
डेवढ़िया चढ़ि बैठइ हो न।
जोगी खोलै लाग कांसा पितरिया
पहिरउ धना मोरे आगे हो न॥
(इतना जानकर जोगी ड्यौढ़ी पर आ धमका. कांसे और पीतल के गहने निकालने लगा. बोला कि ए स्त्री, इन्हें मेरे सामने आकर पहनो.)
स्त्री कांसे-पीतल के गहने पहनने से मना कर देती है. बाबा फुसलाने की कोशिश जारी रखता है. फिर वो कहता है, ‘लो, सोने-चांदी के गहने पहन लो. स्त्री ने गहने ले लिए. पहन भी लिए. लेकिन आगे उसने बाबा को सीधा डर दिखाया. कहा कि अब यहां से भाग जाओ. मेरा पति आ रहा है. वो तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ेगा.
इस तरह छलने वाला खुद ही चक्कर में फंस गया. बाबा की होशियारी चौपट हो गई. वो किसी तरह कोई दूसरा भेस बनाकर वहां से भागा, लेकिन भागते हुए ये कहता गया-
देस-देस मइं फिरउं,
देसवा कइ पानी पियउं हो न।
रामा बारा बरिसिया कइ तिरियवा,
तउ बतिया छलि लइ गइ हो न॥
(बाबा बोला, ‘मैं अनेक देश गया हूं, अनेक देश का पानी पिया है, लेकिन इस बारह साल की (यानी बहुत कम आयु की) लड़की ने अपनी बातों से मुझे चक्कर में डाल दिया. मेरे साथ छल किया.)
इस लोकगीत में स्त्री की होशियारी दिखाई गई है कि कैसे वो होशियारी से स्त्रीलोलुपों से निपटे. अगर बाबा का चंगुल पूरी तरह से प्रभावी हो, तो बचना मुश्किल है. आज के समय में स्त्री समाज को बहुत सतर्क होना होगा कि वो बाबाओं के चंगुल की आशंका से भी बचे. इसके लिए उसे अपने घर पर भी प्रतिरोध करना पड़ सकता है, क्योंकि ये दुर्भाग्य है कि घर के घर बाबाओं के प्रभाव में डूबे होते हैं. लेकिन, अपने व्यक्तित्व की गरिमा सुरक्षित रखने के लिए हर तरह के प्रतिरोध का साहस अपने भीतर लाना चाहिए और लाना होगा.
साभार: द लल्लनटॉप