
“मशहूर शहनाईनवाज़ उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान ने एक इंटरव्यू में एक बार कहा था कि उन्हें दुनिया में सबसे बुरा ये लगता है जब कोई ग़ुस्सा तो करता है लेकिन बेसुरा होकर । ग़ुस्सा खूब करो, मगर सुर में तो रहो I”
जाने-अनजाने अपना स्वाभाव बिगाड़ते जाना बहुत आसान है, लेकिन धीरे-धीरे अपने स्वाभाव को सुरीला-मधुर बनाना बहुत कठिन होता है । इन्सान की सामान्य प्रकृति ही यही है कि पहले वह हर काम खुद ही कठिन बना लेता है फिर उसे सरल बनाने के उपाय ढूंढता फिरता है । बेसुरा बोलना, हमेशा ही हमारे बने-बनाए काम को बिगाड़ देता है । अच्छे प्रबंधक इसे बेहतर जानते हैं कि मीठा बोलकर वो अपने कर्मचारियों से उनकी क्षमता से बहुत अधिक काम कराने का हुनर रखते हैं । काम करने वाले भले ही दिन-रात ये महसूस करते रहें कि उनका बॉस मीठा बोल-बोल कर बहुत काम कराता रहता है लेकिन इस हुनर के आगे ढुलमुल रवैय्या क़तई नहीं टिकता ।
एक ट्यूटर बच्चे को पीट-पीट कर होम-वर्क कराते हुए अपने दिमाग़ का भी कीमा करती है और बच्चे का हाल क्या होगा आप अंदाज़ा लगा सकते हैं । दूसरी ओर, कितने ही टीचर हँसते-मुस्कराते हुए बच्चों का मनोबल बढ़ाते हैं और उन्हें प्रतिभावान बना देते हैं । हमें नहीं लगता कि न्यूटन, एडिसन और आइन्स्टाइन जैसे विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक किसी के गुस्से के प्रभाव में आकर विज्ञान की दुनिया ही बदल गए I
ज़िन्दगी में सफलता के नित नए आयाम बनाने वाले भी ग़ुस्सा करते हैं लेकिन अपनी वाणी की सुर-लय-ताल के मामले में बड़े माहिर होते हैं । वास्तव में, वो बोलने में बेहद सुरीले होते हैं ।