22 अगस्त, 1924 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में जन्मे हरिशंकर परसाई जी हिन्दी व्यंग्य के आधार-स्तम्भ माने जाते हैं । इन्होने हिन्दी व्यंग्य को नई दिशा प्रदान की । ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया । फ्रांसीसी सरकार की छात्रवृत्ति पर आपने पेरिस प्रवास किया । परसाई जी निबंध लेखन के बाद भी मुख्यतया व्यंग्यकार के रूप में विख्यात रहे । ‘निन्दा रस’ निबन्ध व्यंग्य की दृष्टि से एक सुन्दर कृति है ।
‘क’ कई महीने बाद आए थे । सुबह चाय पीकर अखबार देख रहा था कि वे तूफ़ान की तरह कमरे में घुसे, ‘साइक्लोन’ की तरह मुझे अपनी भुजाओं में जकड़ा तो मुझे धृतराष्ट्र की भुजाओं में जकड़े भीम के पुतले की याद आ गयी । यह धृतराष्ट्र की ही जकड़ थी । अंधे धृतराष्ट्र ने टटोलते हुए पूछा, “कहाँ है भीम? आ बेटा, तुझे कलेजे से लगा लूं ।” और जब भीम का पुतला उनकी पकड़ में आ गया तो उन्होंने प्राणघाती स्नेह से उसे जकड़कर चूर कर डाला।
ऐसे मौक़े पर हम अक्सर अपने पुतले को अंकवार में दे देते हैं, हम अलग खड़े देखते रहते हैं । ‘क’ से क्या मैं गले मिला? क्या मुझे उसने समेटकर कलेजे से लगा लिया? हरगिज़ नहीं । मैंने अपना पुतला ही उसे दिया । पुतला इसलिए उसकी भुजाओं में सौंप दिया कि मुझे मालूम था कि मैं धृतराष्ट्र से मिल रहा हूँ । पिछली रात को एक मित्र ने बताया कि ‘क’ अपनी ससुराल आया है और ‘ग़’ के साथ बैठकर शाम को दो-तीन घंटे तुम्हारी निंदा करता रहा । इस सूचना के बाद जब आज सवेरे वह मेरे गले लगा तो मैंने शरीर से अपने मन को चुपचाप खिसका दिया और नि:स्नेह, कँटीली देह उसकी बाँहों में छोड़ दी । भावना के अगर काँटे होते तो उसे मालूम होता कि वह नागफनी को कलेजे से चिपटाए है । छल का धृतराष्ट्र जब आलिंगन करे, तो पुतला ही आगे बढ़ाना चाहिए ।
पर वह मेरा दोस्त अभिनय में पूरा है । उसके आँसू भर नहीं आये, बाक़ी मिलन के हर्षोल्लास के सब चिह्न प्रकट हो गये—वह गहरी आत्मीयता की जकड, नयनों से छलकता वह असीम स्नेह और वह स्नेहसिक्त वाणी ।
बोला, “अभी सुबह की गाड़ी से उतरा और एकदम तुमसे मिलने चला आया, जैसे आत्मा का एक खंड दूसरे खंड से मिलने को आतुर रहता है ।” आते ही झूठ बोला कमबख्त । कल का आया है, यह मुझे मेरा मित्र बता गया था । इस झूठ में कोई प्रयोजन शायद उसका न रहा हो । कुछ लोग बड़े निर्दोष मिथ्यावादी होते हैं । वे आदतन, प्रकृति के वशीभूत झूठ बोलते हैं । उनके मुख से निष्प्रयास, निष्प्रयोजन झूठ ही निकलता है । मेरे एक रिश्तेदार ऐसे हैं । वे अगर बम्बई जा रहे हैं और उनसे पूछें, तो वे कहेंगे, ‘कलकत्ता जा रहा हूँ ।” ठीक बात उनके मुँह से निकल ही नहीं सकती । ‘क’ भी बड़ा निर्दोष, सहज-स्वाभाविक मिथ्यावादी है ।
वह बैठा । कब आये? कैसे हो?—वगैरह के बाद उसने ‘ग़’ की निन्दा आरम्भ कर दी । मनुष्य के लिए जो भी कर्म जघन्य हैं वे सब ‘ग़’ पर आरोपित करके उसने ऐसे गाढ़े काले तारकोल से उसकी तस्वीर खींची कि मैं यह सोचकर काँप उठा कि ऐसी ही काली तस्वीर मेरी ‘ग़’ के सामने इसने कल शाम को खींची होगी ।
सुबह की बातचीत में ‘ग़’ प्रमुख विषय था । फिर तो जिस परिचित की बात निकल आती, उसी को चार-छह वाक्यों में धराशायी करके वह बढ़ लेता ।
अद्भुत है मेरा यह मित्र । उसके पास दोषों का ‘केटलॉग’ है । मैंने सोचा कि जब वह हर परिचित की निंदा कर रहा है तो क्यों न मैं लगे हाथों विरोधियों की गत, इसके हाथों करा लूँ । मैं अपने विरोधियों का नाम लेता गया और वह उन्हें निंदा की तलवार से काटता चला । जैसे लकड़ी चीरने की आरा मशीन के नीचे मजदूर लकड़ी का लट्ठा खिसकाता जाता है और वह चीरता जाता है, वैसे ही मैंने विरोधियों के नाम एक-एक कर खिसकाए और वह उन्हें काटता गया । कैसा आनन्द था । दुश्मनों को रणक्षेत्र में एक के बाद एक काटकर गिरते हुए देखकर योध्दा को ऐसा ही सुख होता होगा ।
मेरे मन में गत रात्रि के उस निंदक मित्र के प्रति मेल नहीं रहा । दोनों एक हो गए । भेद तो रात्रि के अंधकार में ही मिटता है, दिन के उजाले में भेद स्पष्ट हो जाते हैं । निंदा का ऐसा ही भेद-नाशक अँधेरा होता है । तीन-चार घंटे बाद, जब वह विदा हुआ तो हम लोगों के मन में बड़ी शांति और तुष्टि थी ।
निंदा की ऐसी ही महिमा है । दो-चार निन्दकों को एक जगह बैठकर निंदा में निमग्न देखिए और तुलना कीजिए कि ईश्वर-भक्तों से जो रामधुन लगा रहे हैं । निन्दकों की सी एकाग्रता, परस्पर आत्मीयता, निमग्नता भक्तों में दुर्लभ है । इसीलिये संतों ने निन्दकों को ‘आँगन कुटी छवाय’ पास रखने की सलाह दी है ।
कुछ ‘मिशनरी’ निन्दक मैंने देखे हैं । उनका किसी से बैर नहीं, द्वेष नहीं । वे किसी का बुरा नहीं सोचते । पर चौबीसों घंटे वे निंदा कर्म में बहुत पवित्र भाव से लगे रहते हैं । उनकी नितांत निर्लिप्तता, निष्पक्षता इसी से मालूम होती है कि वे प्रसंग आने पर अपने आप की पगड़ी भी उसी आनन्द से उछालते हैं, जिस आनन्द से अन्य लोग दुश्मन की । निंदा इनके लिए ‘टॉनिक’ होती है ।
ट्रेड यूनियन के इस ज़माने में निन्दकों के संघ बन गए हैं । संघ के सदस्य जहाँ-तहां से खबरें लाते हैं और अपने संघ के प्रधान को सौंपते हैं । यह कच्चा माल हुआ । अब प्रधान उनका पक्का माल बनाएगा और सब सदस्यों को ‘बहुजन हिताय’ मुफ्त बांटने के लिए दे देगा । यह फुरसत का काम है, इसलिए जिनके पास कुछ और करने को नहीं होता, वे इसे बड़ी खूबी से करते हैं । एक दिन हमसे ऐसे एक संघ के अध्यक्ष ने कहा, “यार आजकल लोग तुम्हारे बारे में बहुत बुरा-बुरा कहते हैं ।” हमने कहा, “आपके बारे में मुझसे कोई भी बुरा नहीं कहता । लोग जानते हैं कि आपके कानों के घूरे में इस तरह का कचरा मज़े में डाला जा सकता है ।”
ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निंदा भी होती है । लेकिन इसमें वो मज़ा नहीं जो मिशनरी भाव से निंदा करने में आता है । इस प्रकार का निन्दक बड़ा दुखी होता है । ईर्ष्या-द्वेष से चौबीस घंटे जलता है और निंदा का जल छिड़ककर कुछ शांति अनुभव करता है । ऐसा निन्दक बड़ा दयनीय होता है । अपनी अक्षमता से पीड़ित वह बेचारा दूसरे की सक्षमता के चाँद को देखकर सारी रात श्वान जैसा भौंकता है । ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निन्दा करने वाले को कोई दंड देने की ज़रुरत नहीं है । वह निन्दक बेचारा स्वयं दण्डित होता है । आप चैन से सोइए और वह जलन के कारण सो नहीं पाता । उसे और क्या दंड चाहिए ? निरन्तर अच्छे काम करते जाने से उसका दंड भी सख्त होता जाता है । जैसे एक कवि ने एक अच्छी कविता लिखी, ईर्ष्याग्रस्त निन्दक को कष्ट होगा । अब अगर एक और अच्छी लिख दी तो उसका कष्ट दुगना हो जाएगा ।
निन्दा का उद्गम ही हीनता और कमजोरी से होता है । मनुष्य अपनी हीनता से दबता है । वह दूसरों की निन्दा करके ऐसा अनुभव करता है कि वे सब निकृष्ट हैं और वह उनसे अच्छा है । उसके अहं की इससे तुष्टि होती है । बड़ी लकीर को कुछ मिटाकर छोटी लकीर बड़ी बनती है । ज्यों-ज्यों कर्म क्षीण होता जाता है, त्यों-त्यों निंदा की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है । कठिन कर्म ही ईर्ष्या-द्वेष और उनसे उत्पन्न निंदा को मारता है । इन्द्र बड़ा ईर्ष्यालु माना जाता है, क्योंकि वह निठल्ला है । स्वर्ग में देवताओं को बिना उगाया अन्न, बे बनाया महल और बिन बोये फल मिलते हैं । अकर्मण्यता में उन्हें अप्रतिष्ठित होने का भय बना रहता है, इसलिए कर्मी मनुष्यों से उन्हें ईर्ष्या होती है ।
निंदा कुछ लोगों की पूंजी होती है । बड़ा लम्बा-चौड़ा व्यापार फैलाते हैं वे इस पूंजी से । कई लोगों की प्रतिष्ठा ही दूसरों की कलंक-कथाओं के परायण पर आधारित होती है । बड़े रस-विभोर होकर वे जिस-तिस की सत्य कल्पित कलंक-कथा सुनते हैं और स्वयं को पूर्ण संत समझने की तुष्टि का अनुभव करते हैं ।
आप इनके पास बैठिये और सुन लीजिए, “बड़ा ख़राब ज़माना आ गया । तुमने सुना? फलाँ और अमुक.....।” अपने चरित्र पर आँख डालकर देखने की उन्हें फुरसत नहीं होती । एक कहानी याद आ रही है । एक स्त्री किसी सहेली के पति की निन्दा अपने पति से कर रही है । वह बड़ा उचक्का, दगाबाज़ आदमी है । बेईमानी से पैसा कमाता है । कहती है कि मैं उस सहेली की जगह होती तो ऐसे पति को त्याग देती । तब उसका पति उसके सामने यह रहस्य खोलता है कि वह स्वयं बेईमानी से इतना पैसा कमाता है । सुनकर स्त्री स्तब्ध रह जाती है । क्या उसने पति को त्याग दिया? जी हाँ, वह दूसरे कमरे में चली गई ।
कभी-कभी ऐसा भी होता है हममें जो करने की क्षमता नहीं है, वह यदि कोई करता है तो हमारे पिलपिले अहं को धक्का लगता है, हममें हीनता और ग्लानि आती है । तब हम उसकी निंदा करके उससे अपने को अच्छा समझकर तुष्ट होते हैं ।
उस मित्र की मुलाक़ात के क़रीब दस-बारह घंटे बाद यह सब मन में आ रहा है । अब कुछ तटस्थ हो गया हूँ । सुबह जब उसके साथ बैठा था तब मैं स्वयं निंदा के ‘काला सागर’ में डूबता-उतराता था, कल्लोल कर रहा था । बड़ा रस है न निन्दा में । सूरदास ने इसलिए ‘निन्दा सबद रसाल’ कहा है ।
—हरिशंकर परसाई