
हर व्यक्ति जीवन में प्रसन्नता की कामना करता है, आनन्द चाहता है I आनन्द मन की एक अवस्था है, एक भाव है, इसी प्रकार दुःख भी चित्त की प्रबल वृत्ति है, उद्वेग है I हम प्रीतिकर उत्तेजना को सुख और विप्रीत को दुख मानते हैं। आनन्दावस्था दोनों से भिन्न है। वह मात्र उत्तेजना की नहीं, बल्कि शांति की अवस्था भी है। जो सदैव सुख चाहता है, वह निरंतर दुखी रहता है क्योंकि, एक उद्वेग के बाद दूसरा विरोधी उद्वेग निश्चित है । दिन के साथ रात निश्चित है और सुख के साथ दुःख भी I किन्तु, जो सुख और दुख दोनों को त्यागने के लिए तत्पर हो जाता है, वह उस आनन्द को प्राप्त करता है, जो नित्य है, शाश्वत है ।
एक सुन्दर लघु कथा है। किसी व्यक्ति का एकलौता पुत्र गुम गया । उसे गुम हुए कई बरस बीत गए। उस व्यक्ति ने अपने पुत्र को बहुत ढूँढा लेकिन वह कहीं नहीं मिला। फिर धीरे-धीरे वह इस घटना को ही भूल गया ।
कई वर्षों बाद उसके द्वार पर एक अजनबी आया और उसने कहा, “मैं आपका पुत्र हूँ। आपने मुझे पहचाना नहीं?” पिता प्रसन्न हुआ। उसने बरसों बाद अपने पुत्र के घर लौटने की खुशी में बन्धु-बांधवों मित्रों को प्रीति भोज दिया, उत्सव मनाया और सभी ने पुत्र का स्वागत किया। लेकिन, बीते लम्बे समय में वह अपने पुत्र की शक्ल-सूरत भूल चुका था इसलिए इस दावेदार को पहचान नहीं सका। परन्तु, थोड़े दिन बाद ही पहचान भी हो गई I वस्तुतः वह उसका पुत्र नहीं था और समय पाकर वह उसकी सारी संपत्ति लेकर भाग गया।
ऐसे ही दावेदार प्रत्येक व्यक्ति के द्वार पर आते हैं, लेकिन बहुत कम लोग हैं, जो कि उन्हें पहचानते हों। अधिकांश लोग तो उनके धोखे में आ जाते हैं और अपनी जीवन-संपत्ति खो बैठते हैं। आत्मा से उत्पन्न होने वाले वास्तविक आनन्द के स्थान पर, जो वस्तुओं और विषयों से निकलने वाले सुख को ही आनन्द समझ लेते हैं, वे जीवन की अमूल्य सम्पदा को अपने ही हाथों नष्ट कर देते हैं।
हमें स्मरण रहना चाहिए कि जो कुछ भी बाहर से मिलता है, समय हमसे वह सब कुछ छीन भी सकता है I उसे अपना समझना हमारी भूल है। स्वयं का तो वही है, जो कि स्वयं में ही उत्पन्न होता है। वही वास्तविक सम्पदा है। बाह्य साधनों से मिलने वाली अनेकानेक आनन्ददायी वस्तुएं कुछ समय तक हमारे लिए भले ही हो सकती हैं लेकिन उन पर अधिकार समय का ही रहता है I