कानपुर को नौटंकी का जन्मदाता नहीं कह सकते किन्तु उसे पाल-पोस कर विश्व स्तर पर ख्याति दिलाने का श्रेय कानपुर को ही है। इसकी कुछ अपनी विशेषताएँ हैं जिनके कारण यह सफलता के शिखर पर जा पहुँची। नौटंकी, रामलीला, रासलीला की भाँति लोकनाट्यमंच है जिसे पश्चिम का ओपेरा कहा जा सकता है। खुले मैदान में चौकोर चबूतरा अथवा तख्तों द्वारा बनाया गया चौकोर मंच जिसपर दरी पड़ी होती है, और सफ़ेद चादर बिछा दी जाती है। कलाकार उसी पर खड़े होकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। मंच के चारो ओर जनता बैठती है। प्रारम्भ में एक कलाकार कथावस्तु का परिचय देने जाता है जिसे रंगा (सूत्रधार) कहा जाता है। यहाँ बी रंग-बिरंगी आकर्षक पोशाकें, दमदार जड़ाऊ ओरखा, चमक-दमक वाले कीमती परिधान तथा शब्दों स्पष्ट उच्चारण कानपुरी नौटंकी की अपनी विशिष्टता है। भाषा शुद्ध हिंदी तथा उर्दू मिश्रित होती है। कथा ऐतिहासिक-सामाजिक आधारित होती है जो किसी आदर्श को लेकर नसीहत देती है। वाद्यों में नक्कारा (नगाड़ा), नगड़िया तथा सारङ्गी का प्रयोग होता है। पहले नौटंकी में स्त्री पात्र की भूमिका पुरुष निभाते थे। कालान्तर में कुछ पेशेवर गानवती नर्तकियों ने यह कार्यक्रम अपने हाथ में ले लिया जिनमें गुलाब जान, किसनिया और रामा देवी को अभूतपूर्व ख्याति मिली।
नौटंकी के विकास में राजगद्दी हटिया निवासी श्रीकृष्ण खत्री का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। आपने तीन सौ से ऊपर नौटंकियां लिखीं, जिनमें ढाई सौ से ऊपर प्रकाशित हुईं। इनमें चंचला कुमारी, रानी पद्मिनी, शिवाजी महाराज, राणा प्रताप, अमर सिंह, कर्मावती, विद्युल्लता, रजिया सुल्ताना और दुर्गावती ने अभूतपूर्व प्रसिद्धि पायी। श्रीकृष्ण व्यायाम प्रेमी थे, कुश्ती लड़ते थे। सदाचार और संयम ने उन्हें पहलवान बना दिया था। उनका सुविमल, सुपुष्ट शरीर देखते ही बनता था। अतः वे पहलवान उपनाम से प्रसिद्धि हो गए। उन्होंने अपने जीवन के सत्तर साल नौटंकी के प्रचार-प्रसार में सार्थक किये। इक्यासी वर्ष की आयु में वे परलोक सिधारे। उन्होंने श्रीकृष्ण संगीत कम्पनी की स्थापना की। उनके दिवंगत होने के पश्चात कम्पनी का भार उनके लघु भ्राता श्रीराम महरोत्रा ने अपने हाथ में ले लिया। कम्पनी चार टोलियों में विभक्त थी। पहली टोली कानपुर में रहकर अभ्यास करती, दूसरी सहालगों, प्रदर्शनियों और मेलों में भाग लेतीं, तीसरी नगरों में घूम-घूम कर अपनी कला का प्रदर्शन करती और चौथी कराची में रहकर स्थाई रूप से खेला करती। नौटंकी में टिकट लगाने की कानपुर से प्रारम्भ हुई। श्रीकृष्ण, पहलवान के अतिरिक्त जिन महारथियों ने नौटंकी के उन्नयन में योगदान दिया उनमें कन्नौज के नौटंकी लेखक तिरमोहन, मन्धवा के लालमणि नम्बरदार और अलीगढ़ के छिद्दन उस्ताद प्रमुख हैं। तिरमोहन ने नगाड़ा वादन में जो कीर्तिमान स्थापित किया उसे कोई लांघ न सका। उनके नगाड़े की आवाज़ से दिशाएं गूँज उठती थीं। दर्शकों में उत्तेजना की लहर दौड़ जाती थी। कभी-कभी नर्तकियों के अश्लील एवं पिछले प्रदर्शन से उत्तेजित युवकों में तानाशाही, मारपीट और लाठी-डंडे तक चल जाते थे। शासन की ओर से पाबंदी लगा दी गयी। नौटंकी खेलने से पहले शासन की मंजूरी लेनी पड़ती थी। पाबन्दी लगने के साथ ही कनपुरिया नौटंकी भीतर ही भीतर दम तोड़ने लगी और अंत में गुमनामी के अँधेरे में खो गयी।
कानपुर के ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी स्व. सिद्धेश्वर अवस्थी ने भी कुछ नौटंकियां लिखीं। नौटंकी का परिष्कार कर उसे अखिल भारतीय स्टार पर ही नहीं, अपितु विश्व स्तर पर पहुँचाने की भूमिका निभाई जिनकी देश-विदेश में बड़ी सराहना हुई। स्व. श्री रसिकेंद्र तथा गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' जी ने श्रीकृष्ण खत्री के नौटंकी रचना कार्य में आवश्यक सहयोग एवं प्रोत्साहन प्रदान किया।
-डॉ. विद्याभास्कर बाजपेयी
लवकुश नगर, बिठूर कानपुर।