ये आकाशवाणी है, देश की सुरीली धड़कन... कुछ ऐसा ही जाना-माना उद्घोष...फिर उसके बाद एक से बढ़कर
एक खूबसूरत फ़िल्मी गीतों की झड़ी...कभी हवामहल की हंसी की फुहारें तो कभी लोकसंगीत के मोतियों
की लड़ी. एक ऐसा अदृश्य साथी, जिसे देखने को, छूने को और जिससे कुछ कहने को दिल चाहे.
कान, जाने कब समझने लगे थे इन आवाज़ों को.
फर्श से बिस्तर और थोड़ा हाथ बढ़ाते ही कुछ ऊँचाई पर, एक ब्रैकेट पर रखा लकड़ी की कैबिनेट वाला एक
बड़ा सा रेडियो...किसी तरह उचक-पुचक कर वॉल्यूम और ट्यूनिंग की नॉब घुमा
दिया करता था. मज़ा तो बहुत आता था मगर डाँट भी बहुत पड़ती थी. फिर भी रेडियो के
संग छेड़छाड़ करने से बाज़ नहीं आता था ।
आज आप किसी एल.सी.डी. या एल.ई.डी.
टी०वी० के लेटेस्ट मॉडल को भी, इतनी तवज्जो नहीं देते
होंगे, उन दिनों जितनी
शिद्दत से हम इस रेडियो सेट को निहारा और सुना करते थे. आज आप जेब में
रखी एक छोटी सी डिवाइस पर भी रेडियो सुन लेते हैं, झटपट चैनल बदल लेते हैं. लेकिन गुज़रे
वक़्त में रेडियो से ज़्यादा छेड़छाड़ को अच्छा नहीं समझा जाता था क्योंकि एक-एक
रेडियो सेट से कई-कई लोग आनंद ले रहे होते थे. संचार के माध्यम कम थे,
लेकिन इन पर जो भी
जानकारियां होती थीं,
लोगों पर उनका गहरा असर होता था. रेडियो,
घर का एक सदस्य जैसा हुआ करता था...सबका प्यारा,
सबका दुलारा. हर रोज़ रेडियो पर कार्यक्रमों की
शुरूआत और समापन ऐसे प्रतीत होते थे मानो मंदिर में प्रभु का पूजन शुरू हो, घंटों वंदन-अर्चन चलती रहे और फिर
झांझ-मंजीरे, घंटे-घड़ियाल
के साथ, आरती-प्रसाद के बाद
मंदिर के पट बंद कर दिए जाएँ ।
वक़्त गुज़रता गया...दौर बदलते गए,,,शौक़ बदलते गए...ज़ौक़ बदलते गए, लेकिन रेडियो नामक ये साथी नित नए परिधान
पहनकर हमेशा संग रहा. लड़कपन ज़्यादा था तो तक़रीबन हर आवाज़ पर फुदक लिया करता
था. दुनियादारी की कुछ समझ बढ़ी तो ट्यूनिंग की सुई रोमांटिक गानों पर आकर
अटक गई. जाने कब-कैसे ये गाने मन को लुभाने लगे ।
एक रोज़ रेडियो पर सरस्वती चन्द्र फिल्म
का गाना चल रहा था- “फूल तुम्हें भेजा है खत में...” मैं अपने काम में मशगूल फुल वॉल्यूम में चिग्घाड़े जा रहा
था- “खत
से जी भरता ही नहीं अब नैन मिले तो चैन मिले”… माताजी पीछे से कब आ
गईं, जान ही नहीं पाया.
मेरी घुंघराली
ज़ुल्फ़ों को उन्होंने पीछे से ही दबोचा और घसीटती ले गईं शाही
दरबार में. जब तक आँय-आँय
करता, बाबूजी के सामने पेश
था ।
“क्या है ये सब ?” बाबूजी
ने पूछा ।
“ये पूछिए अपने साहबज़ादे से, माताजी गुर्राईं. अब इनका मन खत से नहीं भर रहा,
किसी से नैन मिले, तभी चैन मिलेगा...” सुबह
से रात
तक बस रेडियो-रेडियो-रेडियो...और हर लाइन के बाद एक तमाचा. अच्छा था कि उन्हें पूरा गाना
नहीं याद था वरना दोनों गाल सुजा देतीं. बाबूजी हैरान थे और समझ मुझे भी कुछ नहीं आ रहा था,
सिर्फ खोपड़ी झुकाए बाल खुजा रहा था ।
उन दिनों सिबाका गीतमाला का बड़ा क्रेज़
था. अमीन सायानी साहब की आवाज़ का क्या कहना...वाह-वाह ! जैसे हौले-हौले
कोई कानों में शहद टपकाता जाए, लेकिन
रेडियो सीलोन ट्यून-इन करने के लिए बड़े जतन करने पड़ते थे. ये नहीं तो ऑल इंडिया रेडियो की
उर्दू सर्विस, या
फिर कोई और स्टेशन. दिन-रात रेडियो का कान उमेठने
का नतीजा ये रहा कि रेडियो की हालत खस्ता हो गई. एक के बाद दूसरा, दूसरे
के बाद तीसरा...तीन रेडियो सेट लाए गए मगर मेरी इंजीनियरिंग के चलते तीनो ने दम तोड़ दिया ।
“मुझे समझ नहीं आता ये लड़का जीवन में
क्या करेगा. अरे नाटक-नौटंकी ही करनी है तो छोड़ो पढ़ाई-लिखाई. कम-अज़-कम मेरा
पैसा तो न बर्बाद
हो”, बाबूजी
बड़बड़ाए जा रहे थे ।
मुझे ऐसा लग रहा था मानो कोई अच्छे-भले
ट्यून्ड सितार के सातो सुर बुरी तरह छेड़ रहा हो. लेकिन बाबूजी ग़लत नहीं
कहते थे. इंटीग्रल कैलकुलस के सवाल हों या केमिस्ट्री की रिएक्शन्स, शेक्सपियर का ड्रामा हो या संत कबीर की शैली, बैकग्राउंड में मेरा रेडियो टुनटुनाते
रहना ज़रूरी था. ग़लती तो मेरी ही थी ।
समझता तो मैं भी था कि पढ़ाई करते वक़्त
रेडियो चला के बैठ जाना, कोई अच्छी बात नहीं,
फिर भी मोहब्बत तो मोहब्बत है साहब,
इस पर किसी का क्या वश है और इसमें सब कुछ
जायज़ भी. खैर, वक़्त
गुज़रता गया और विविध भारती से मेरे प्यार के चर्चे आम होते गए. कुछ बरस तक
लोग मुझे क्या खोया क्या पाया के मंथन में फंसा देते थे, ये और बात है कि अब मैं लोगों को सीधी
राह बता देता हूँ ।
किसी से क्या कहता. बात कहने का लहजा,
सलीक़ा, शब्दों का चयन, उच्चारण और वाणी की सहजता-सरलता-मधुरता सब एक
साथ सीखने की खातिर किस स्कूल में दाखिला लेता. उम्र के हर पड़ाव पर,
क्या और कोई मेरे ही जैसी, मेरे मन की बातें करता. रेडियो पर मचलते गीतों की
मानिंद, क्या क़दम-क़दम पर कोई
मेरे जज़्बातों
का साथी होता. कितने ही लोग मिले, कितने
ही चले गए...पर रेडियो जैसा साथ निभाने वाला तो शायद ही मिला
हो ।
बात थोड़ी संजीदा हो चली, चलो रेडियो खोलें, कोई गाना सुन लें. अहा! क्या गाना चल रहा है- “कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, प्यारे-प्यारे दिन वो मेरे, प्यारे पल-छिन...!”
गाना चल ही रहा था कि पानी की मोटी सी
धार, छपाक से आकर मेरे
मुंह पर पड़ी.
मैं झट से उठ बैठा और आँखें मलने लगा. सामने श्रीमती जी खड़े मुस्करा रही थीं और मैं मन ही
मन झुल्ला रहा था ।
“सुबह से तीन बार जगा चुकी हूँ. इनकी
नींद ही नहीं पूरी होती. मुन्ना कब से स्कूल के लिए तैयार हो गया,
जाइये जल्दी उसे चौराहे तक छोड़कर आइये, वरना बस छूट जाएगी I”
“अच्छा सुनिए, लौटते समय ढाई सौ ग्राम गरम जलेबियाँ
लेते आइयेगा I” लफ़्ज़ों के मोती चमकाते हुए, चलते-चलते ये बोलीं I
मैंने मुड़कर पीछे की ओर देखा. ऊंचे बरगद
के घने पत्तों की ओट से उषा सुन्दरी मुस्करा रही थी. रेडियो पर
‘भूले-बिसरे-गीत’ का तीसरा गाना ख़त्म हो चुका था. विज्ञापन
चल रहा था- ‘आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से
बना...वज्रदंती...सारी दुनिया के दांत मज़बूत करे I’