यह तनिक अनपेक्षित-अस्वाभाविक है कि न्यायाधीशों की कमी का जिक्र करते हुए उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश इतना भावुक हुए कि उनकी आंखों में आंसू छलक आए। मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में प्रधान न्यायाधीश केवल भावुक ही नहीं हुए, बल्कि प्रधानमंत्री की मौजूदगी में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि लंबित मुकदमों की समस्या के लिए केवल न्यायपालिका को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। यह अच्छा हुआ कि प्रधानमंत्री ने न केवल न्यायाधीशों की कमी की समस्या को दूर करने का भरोसा दिलाया, बल्कि यह भी कहा कि यदि कोई संवैधानिक बाध्यता न हो तो वरिष्ठ मंत्री और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश विचार-विमर्श कर समाधान की कोई राह निकालें। उचित यह होगा कि न्यायपालिका और सरकार के बीच संपर्क-संवाद का सिलसिला जल्द ही शुरू हो। वैसे भी सभी स्तरों पर पर्याप्त न्यायाधीशों की नियुक्ति न होना एक पुरानी समस्या है। इस समस्या के बारे में पहले भी कई बार चर्चा की जा चुकी है, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही है। करीब तीस वर्ष पहले 1987 में विधि आयोग ने यह कहा था कि प्रति दस लाख आबादी पर न्यूनतम पचास न्यायाधीश होने चाहिए, लेकिन इस लक्ष्य को पाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। मौजूदा समय प्रति दस लाख की आबादी पर मुश्किल से 12-15 न्यायाधीश ही हैं। इन स्थितियों में लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ना स्वाभाविक ही है। निचली अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक लंबित मुकदमों की भारी-भरकम संख्या ने एक गंभीर समस्या का रूप धारण कर लिया है। एक अनुमान के मुताबिक निचली अदालतों में करीब तीन करोड़ और उच्चतर न्यायपालिका में लगभग चालीस लाख मुकदमे लंबित हैं। इसका सीधा मतलब है कि देश की एक बड़ी आबादी न्याय के लिए प्रतीक्षारत है। लंबित मुकदमों के बोझ के लिए न्यायाधीशों की कमी ही एकमात्र कारण नहीं है। अन्य कारणों में पुराने कानून और स्वयं सरकारों द्वारा अपने नागरिकों से मुकदमेबाजी में उलझना भी शामिल है। छोटे-मोटे मामलों में मुकदमेबाजी की प्रवृत्ति भी अदालतों के कामकाज में बाधा बन रही है। लोगों को समय पर न्याय मिले, यह सुनिश्चित करना न्यायपालिका की भी जिम्मेदारी है और सरकार की भी। यह एक ऐसी समस्या है जिसमें केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी तत्परता दिखानी होगी। सच तो यह है कि समय पर न्याय सुलभ कराने के लिए न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका, तीनों को ही सक्रियता दिखाने की आवश्यकता है। प्रधान न्यायाधीश ने इस सम्मेलन में जो कुछ कहा उससे असहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन कुछ ऐसे तथ्य हैं जिन पर उच्चतम न्यायालय को भी गौर करना होगा। यदि न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी कानून को रद नहीं किया जाता तो संभवत: आज उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति का काम आगे बढ़ गया होता। यह अच्छा नहीं हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को यह कहकर खारिज कर दिया कि यह संविधान के मूल ढांचे के विपरीत है। देश को यह बताया जाना चाहिए कि आखिर यह मूल ढांचा है क्या और क्या यह आदर्श स्थिति है कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें? एक विचारणीय प्रश्न यह भी है कि जब लंबित मुकदमों का बोझ बढ़ता जा रहा है तो उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में इतनी अधिक छुट्टियां क्यों होती हैं? एक प्रश्न यह भी है कि ऊंची अदालतें हर समस्या को अपने हाथ में लेने के लिए क्यों तत्पर दिखती हैं? इसी क्रम में इस पर भी गौर होना चाहिए कि संता-बंता के चुटकुलों और कोहिनूर हीरे की वापसी जैसे मसलों को सुना जाना कहां तक उचित है?
साभार: दैनिक जागरण