कुदरत के करिश्मे भी अजीब होते हैं I जो हवाएँ कल तक सूखे दरख्तों से पत्तियों को ज़मीन पर बिखेर रही थीं, वही मौसम के बदलते ही हरी घास पर शबनम की बूँदें बनकर चमकने लगी हैं I दूर बर्फीली पहाड़ियों से आती मेहमानी सर्द हवाएँ कब अपने शहर का ख़ास हिस्सा बन जाती हैं, कब ये चुपके से सुबह की धुप की तरह हमारे घर के कोने-कोने तक पसर जाती हैं, हम जान भी नहीं पाते I ऐसे में याद आने लगते हैं लकड़ी-लोहे के वो भारी बक्से जिनमें कुनैन की गोलियों की महक में डूबे, साल-दर-साल छोटे हो रहे कपड़े बेसब्री से बाहर आने को आतुर होते हैं I सुबह की आम चाय, ख़ास लगने लगती है I हाँ, नहाते समय पानी का पहला लोटा पसीने ज़रूर छुड़ा देता है I
मौसम के बदलते ही शहर के मिज़ाज भी बदलने लगते हैं I फूलबाग, नानाराव पार्क, मोतीझील, लेनिन पार्क, ब्रजेन्द्र स्वरुप पार्क और कानपुर विकास प्राधिकरण के सामने वाले मार्ग पर कई नौजवान, बुज़ुर्ग और महिलाएं तेज़ गति से ‘मॉर्निंग वाक’ पर देखे जा सकते हैं I हर सुबह कोहरे में हिरनों जैसी फुर्ती में नज़र आने वालों में से अधिकांश का टहलना उनकी दिनचर्या का हिस्सा होती है जबकि कई लोग इनकी देखा-देखी पिछलग्गू बनकर मौसम का मज़ा लेते हैं I फिर टहलते-टहलते पाँव बरबस ही किसी छाँछ के लाल मटके वाले ठेले पर आकर रुक जाते हैं I मक्खन-ब्रेड के निवालों के साथ मट्ठे का बड़ा गिलास गला तर करता हुआ गटागट पेट में उतर जाता है I साथ ही ये धावक एक डकार के साथ अपनी पद यात्रा को विराम दे देते हैं I
ये शहर भी बड़ा कमाल का है तभी तो कमाल है यहाँ कि सर्दी, यहाँ का कोहरा I गंगा के किनारे बसे होने के कारण इस शहर की सर्दी व कोहरा हर किसी को गुलाबी सर्दी का मतलब बता जाता है I सर्दी का मौसम आते ही कानपुर की बाजारों के नज़ारे देखते ही बनते हैं I शहर भर में लगने वाली कपड़ों, रंग-बिरंगी ऊन, स्वेटर, कम्बल-रजाई और हर किसी की जेब से मेल खाती गर्म कपड़ों की दुकानें जहाँ एक ओर रोज़गार देती हैं, वहीं दूसरी ओर हर ख़ास-ओ-आम के लिए तन ढकने को गर्म कपड़े भी मुहैया कराती हैं I शहर में छोटे से छोटा व्यवसाय करने वाला, रोज़ कमाकर खाने वाला साधारण इन्सान भी यहाँ पहन-ओढ़कर पैंतीस रुपए में पेट भर खाना और पांच रुपए की चाय पीकर मुस्कराकर दिन गुज़ार लेता है I
शहर, हर सुबह धुंध के साथ बहुत सारी नई उम्मीदें लेकर आता है I जैसे-जैसे अलसाया कोहरा धुंध के साथ छंटता है, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी भी अंगडाई लेकर चाय के प्याले से शुरू होती है और रात को अलाव पर आकर फिर नई सुबह के लिए अपनी आँखें बन्द कर लेती है I शाम की सर्दी में ठिठुरता आम आदमी दिनभर की बटोरी हुई जलावन को जलाकर तापते हुए जब एक साथ घेरा बनाकर बैठता है तो फिर आग की लपटों से चमकते लाल-नारंगी चेहरे और धुंए से मिचमिचाती आखें न जाने कितने किस्से-कहानियाँ सुनाती हैं I सब अपने-अपने क़िस्से, सुख-दुःख की बातें और तजुर्बे बयाँ करते हैं I मूंगफली के साथ हरी चटनी की चटोरी चटकारें और गुड़-अदरक की चाय इन चौपालों का अहम् हिस्सा बन जाती हैं I फिर अलाव के पास खेलते बच्चों को दादा-दादी की तमाम नसीहतें भी मिलती हैं I बची-खुची गर्म राख में फिर आलू भूने जाते हैं I कभी-कभी तो राख़ में दबे आलू की सुबह याद आती है I अब, भुने आलू खाने का मज़ा शब्दों में तो बयाँ होने से रहा...!
सच, ये सर्दी सिर्फ एक मौसम ही नहीं बल्कि ज़िन्दगी का दर्शन भी है I वो दर्शन जो जाति-धर्म-सम्प्रदाय की झूठी दीवारों को लांघ कर एक साथ सद्भाव के अलाव को घेरकर मिलजुल कर हमें रहना सिखाता है I एक कप गर्म चाय का बहाना ज़िन्दगी की भागमभाग से कुछ फुरसत और सुकून के पल बिताने की खूबसूरत वजह बनता है I ज़रूरत है कि वो कपड़े जो अपनी बाहों से छोटे हो गए हों, हम उन ज़रूरतमंद लोगों को दे दें जिनकी ठण्ड से कंपकपाती उँगलियाँ उन छोटी हो गई बाहों में दुबक सकें I सड़क किनारे सर्दी से कांपते किसी फक़ीर के तन पर आपकी एक पुरानी चादर उसे जीवन दे सकती है I गाँव हों या शहर मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ के नायक हलकू जैसे पात्र कहीं भी हो सकते हैं, ऐसे ज़रूरतमंद लोगों की मदद करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है I
—धर्मेन्द्र कुमार शर्मा
शिक्षक बी.एस.एस. इन्टर कॉलेज, कानपुर I
साभार : मातृस्थान हिन्दी पत्रिका