कानपुर का लोकनृत्य विदेशों में भी लोकप्रिय था लेकिन वक़्त कुछ ऐसा बदला कि सब कुछ ख़त्म हो गया। लन्दन टाइम्स पत्र के संवाददाता डब्लू एच रसेल के शब्दों में विद्रोह के पूर्व कानपुर अपने शांत दिनों के लिए प्रसिद्ध था। सुन्दर महिलाओं से भरा ये शहर प्राइवेट थिएटर, हर सप्ताह होने वाले नृत्य समारोह, दावतों और पिकनिक के कारण हर किसी की पसन्द था। 'माई डायरी इन इंडिया' का यह कथन रसेल ने अपनी फरवरी 1858 की यात्रा पर लिखा है। अक्टूबर में वापस आया और कानपुर में दशहरा और रावण पुतला दहन को देखा।
रसेल की डायरी का एक अन्य पृष्ठ देखें, '18 अक्टूबर, 1858, मैं अपने सामान के लिए कानपुर में ठहरा हुआ था, अपने पालतू भालू, चिड़िया और बन्दर एक कुली को कलकत्ता पहुँचाने के लिए दे दिए। उसने बहुत कम पैसे लिए। रात का खाना खाने के बाद शहर में एक महाजन के घर हम नाच देखने गए। कलेक्टर शेरर उनके सहायक मिस्टर वीटा, मशहूर फ़ोटोग्राफ़र और मैं एक खुली गाड़ी में घुड़सवारों के साथ शहर में गए। मुख्य मार्ग देशी ढंग से रोशनी में रंगा था। सड़क के किनारे बाँसों में मिट्टी के छोटे-छोटे दीपक जल रहे थे, घरों में भी इस तरह के दीपक जलने से सब ओर रोशनी थी, सड़कों पर बहुत भीड़ थी, लोग चमकते सफ़ेद कपडे पहने हुए थे। हाथी घोड़े-गाड़ियों पर या फिर पैदल ही सब नाच देखने जा रहे थे।
एक खुला कमरानुमा जगह जो चारो ओर खुली हुई और खम्भों पर टिकी हुई थी, छत पर झंडे लिपटे हुए थे, काँच के झाड़फानूस और फूलों की सजावट लटकी हुई थी। बड़े स्वागत के साथ हमें कुर्सियों तक ले जाया गया। अन्य विशिष्ट आमंत्रित गलीचे पर बैठे हुए थे या हमारी कुर्सियों के बगल में खड़े थे। मुझे यह देखकर दुःख पहुँचा कि वहां बहुत से बच्चे भी थे। मैं समझता हूँ कि नाच देखने से इनको कोई लाभ नहीं था। हमें चमेली की माला पहनाई गयी, चांदी के बर्तनों से हमारे कपड़ों पर सुगन्ध छिड़की गयी, मीठे केक की तरह की कोई चीज़ खाने को दी गयी, मेज़बान ने कुछ भाषण किया और इसके बाद नाच शुरू हुआ, नाचने वाली बहुत सुन्दर नहीं थी लेकिन उसकी आवाज़ बहुत मधुर थी। वह बहुमूल्य कपड़े पहने थी। सात संगीतज्ञ साज़ बजाने वाले थे, नाच का पहला भाग समाप्त होते ही एक खराब लगने वाला उबाऊ नाटक की तरह का कार्यक्रम संगीत के साथ हुआ जिसमें आदमी, औरतों के कपड़े पहनकर नाच रहे थे। यह तमाशा समाप्त होने के पूर्व ही हम लोग चले गए। रसेल की डायरी का उपरोक्त पृष्ठ कानपुर का डेढ़ सौ वर्ष पूर्व का सुन्दर दृश्य दिखाता है कि कैसे महाजन, रईस व लाला लोग आमोद-प्रमोद से रह रहे थे। जिस पश्चिमी बयार को हम भारतीय संस्कृति का क्षरण करने वाली कहते हैं, उसका पोषक हमें यह बताता है कि दोषी हम हैं। रसेल नृत्य देखने आये उन महाजनों और रईसों के बच्चों को देख दुःख प्रकट करता हैं। यह इसी बात को इंगित करता है।
स्वामी ब्लाकटानंद जी ने एक नृत्य व विलासिता से पूर्ण सेठ का सुन्दर चित्रण किया है जो मरने पर अपने पुत्र वृक्कोदर से आत्मशान्ति के लिए पतुरिया नाच देखने की इच्छा प्रकट करता है और उसका पुत्र उसकी इस इच्छा के लिए उसे दुतकारता है। यह सभी पतुरिया नाच व रईसों और महाजनों के विलासी जीवन की झाँकी प्रस्तुत करते हैं और कनपुरिया संस्कृति पर प्रकाश डालते हैं। पं0 प्रतापनारायण मिश्र अपनी लोकप्रिय 'कानपुर महात्मय' में इसी प्रकार के नृत्य का वर्णन करते हैं। 'तबला ठनकै लखनउहन को बँगला मा होए परिजन का नाचु। अज़हर कानपुरी अपनी रचना 'दर मदहे कानपुर' में 'वो हूरों का तमाशा' व मजीद खाँ की रचना 'तारीफ़ कानपुर' में 'कानपुर की न भूली परियों की शोहबत' इसी प्रकार के नृत्य की द्योतक है।
-बृजभूषण मिश्र
गौतम विहार, कल्याणपुर कानपुर।