(कथाकार जैनेन्द्र कुमार )
भाग्य और पुरुषार्थ के सम्बन्ध में जब हम मौलिक दृष्टि से विचार करते हैं तो पाते हैं कि ये दोनों एक दूसरे के विरोधी न होकर सहवर्ती हैं भाग्य तो विधाता का ही दूसरा नाम है .. विधाता की कृपा को पहचानना ही भाग्योदय है । मनुष्य का सारा पुरुषार्थ विधाता की कृपा प्राप्त करने में ही है । विधाता की कृपा प्राप्त होते ही मनुष्य के कर्तापन का अहंकार मिट जाता है और उसका भाग्योदय हो जाता है । इसी विषय पर प्रेमचंदोत्तर युग के श्रेष्ठ कथाकार जैनेन्द्र जी का लिखा निबन्ध ‘भाग्य और पुरुषार्थ’ स्मरण हो आता है । आइए, इस निबंध के माध्यम से विचार करें कि वस्तुतः क्या है भाग्य और क्या है पुरुषार्थ... भाग्य और पुरुषार्थ विपरीत नहीं तो अलग तो समझे ही जाते हैं । मैं ऐसा नहीं समझ पाता । भाग्य का उदय मेरे निकट निरर्थक शब्द नहीं है । स्पष्ट ही भाग्योदय शब्द का आशय है कि मैं प्रधान नहीं हूँ; भाग्य प्रधान है । पुरुषार्थ मैं कर सकता हूँ, लेकिन भाग्योदय उससे स्वतंत्र तत्व है हो सकता है कि लोगों को यह मानने में कठिनाई हो, मुझे इसे स्वीकार करने में उल्टे अपनी धन्यता मालूम होती है । एक शब्द है सूर्योदय । हम जान गए उदय सूरज का नहीं होता बल्कि सूरज तो अपेक्षाकृत अपनी जगह रहता है, चलती–घूमती धरती ही है । फिर भी सूर्योदय शब्द हमको बहुत शुभ और सार्थक मालूम होता है । भाग्य को भी मैं इसी तरह मानता हूँ i वह तो विधाता का ही दूसरा नाम है । वे सर्वान्तर्यामी और सार्वकालिक रूप में हैं, उनका अस्त ही कब है कि उदय हो । यानी भाग्य के उदय का प्रश्न सदा हमारी अपनी अपेक्षा से है । धरती का रूख सूरज की तरफ हो जाए, यही उसके लिए सूर्योदय है । ऐसे ही मैं मानता हूँ कि हमारा मुख सही भाग्य की तरफ हो जाए तो इसी को भाग्योदय कहना चाहिए । लेकिन ऐसा हुआ नहीं करता i पुरुषार्थ की इसी जगह संगति है । अर्थात भाग्य को कहीं से खींच कर उदय में लाना नहीं है, न अपने साह ही ज़्यादा खींचतान करनी है । सिर्फ मुँह को मोड़ लेना है i मुख हमेशा अपनी तरफ रखा करते हैं । अपने से प्यार करते हैं, अपने ही को चाहते हैं । अपने को आराम देते हैं, अपनी सेवा करते हैं । दूसरों को अपने लिए मानते हैं, सब-कुछ को अनुकूल चाहते हैं चाहते यह हैं कि हम पूजा और प्रशंसा के केन्द्र हों और दूसरे आस-पास हमारे इसी भाव में मंडराया करें i इस वासना से हमें छुट्टी नहीं मिल पाती । तब भी होता है कि ऊपर से गहरा दुःख आ पड़ता है । वह हमें भीतर तक विदीर्ण कर जाता है कुछ क्षण के लिए जैसे हमे अहंता को शून्य कर डालता है । वह शून्यावस्था भगवत कृपा से ही प्राप्त होती है । इसलिए मैं मानता हूँ कि दुःख भगवान का वरदान है । अहं और किसी औषध से गलता नहीं, दुःख ही भगवान् का अमृत है । वह क्षण सचमुच ही भाग्योदय का हो जाता है, अगर हम उसमें भगवन की कृपा को पहचान लें i उस क्षण यह सरल होता है कि हम अपने से मूदें और भाग्य के सम्मुख हों । बस, इस सम्मुखता की देर है कि भाग्योदय हुआ रखा है । असल में उदय उसका क्या होना है, उसका आलोक तो कण-कण में व्याप्त सदा-सर्वदा है ही । उस अलोक के प्रति खुलना हमारी आँखों का हो जाए बस उसी की प्रतीक्षा है i साधना और प्रयत्न सब उतने मात्र के लिए हैं । प्रयत्न और पुरुषार्थ का कोई दूसरा लक्ष्य मानना बहुत बड़ी भूल करना होगा, ऐसी चेष्टा व्यर्थ सिद्ध होगी । दुनिया में हम देखते तो हैं । लोग हैं कि बहुत हाथ-पैर पटक रहे हैं, दिन-रात जोड़-तोड़ में लगे रहते हैं । कोशिश में तो कमी नहीं है पर सिद्धि कुछ नहीं मिल पाती तो आखिर ऐसा क्यों है ? कोशिश की पुरुषार्थ में सिद्धि मानें तो यह दृश्य नहीं दीखना चाहिए कि हाथ-पैर पटकने वाले लोग व्यर्थ और निष्फल रह जाएँ i अगर वे व्यर्थ प्रयास करते रहते हैं तो अंत में यह कह उठे कि क्या करें, भाग्य ही उल्टा है , तो इसमें गलती नहीं मानी जाएगी । सच ही अधिकाँश यह होता है कि उनका और भाग्य का सम्बन्ध उल्टा होता है । भाग्य के स्वयं उल्टे-सीधे होने का तो प्रश्न ही क्या है ? कारण, उसकी सत्ता सर्वत्र व्याप्त है । वहां डिशें तक समाप्त हैं i विमुख और सम्मुख जैसा वहां कुछ सम्भव नहीं है । तब होता यह है कि ऐसे निष्फल प्रयत्नों वाले स्वयं उससे उल्टे बने रहते हैं अर्थात अपने को ज़्यादा गिनने लग जाते हैं, शेष दूसरों के प्रति अवज्ञा और उपेक्षाशील हो जाते हैं । कर्म में अधिकांश यह दोष रहता है, उसमें एक नशा होता है i नशा चढ़ने पर आदमी भाग्य और ईश्वर को भूल जाता है और विनय की आवश्यकता को भी भूल जाता है । यों कहिए कि जान-बूझकर भाग्य से अपना मुँह फेर लेता है i तब, उसे सहयोग न मिले तो उसमें विस्मय ही क्या है । ऊपर के शब्दों में आप कृपया कर्म की अवज्ञा न देखें, उसके साथ अकर्म के महत्त्व को भी पहचानें । अकर्म का आशय कर्म का अभाव नहीं, कर्तव्य का क्षय है । ‘मैं यह कर रहा हूँ, मैं वह करने वाला हूँ, यह सब-कुछ करके छोडूंगा’ आदि-आदि, अहंकारों से किया गया कर्म, यदि सिद्धि और सफलता न लाए बल्कि बन्धन और क्लेश उपजाए, तो इसमें तर्क की कोई असंगति नहीं i पुरुषार्थ का अर्थ मेहनत ही नहीं है, सहयोग भी है । अहं के बल पर चलने से यह सहयोग क्षीण होता है । तब उसका पुरुषार्थ भी क्या कहना? पुरुषार्थ वह है जो पुरुष को सप्रयास रखे, साथ ही सहयुक्त भी रखे । यह जो सहयोग है, सच में पुरुष और भाग्य का ही है । पुरुष अपने अहं से वियुक्त होता है, तभी भाग्य से संयुक्त होता है i लोग जब पुरुषार्थ को भाग्य से अलग और विपरीत करते हैं तो कहना चाहिए कि वे पुरुषार्थ को ही उसके अर्थ से विलग और विमुख कर देते हैं । पुरुष का अर्थ क्या पशु का ही अर्थ है? बल-विक्रम तो पशु में ज़्यादा होता है । दौड़-धूप निश्चय ही पशु अधिक करता है । लेकिन यदि पुरुषार्थ पशुचेष्टा के अर्थ से कुछ भिन्न और श्रेष्ठ है तो इस अर्थ में कि वह केवल हाथ-पैर चलाना नहीं है, न क्रिया का वेग और कौशल है, बल्कि वह स्नेह और सहयोग भावना है i सूक्ष्म भाषा में कहें तो उसकी अकर्तव्य-भावना है । वासना से पीड़ित होकर पशु में अद्भुत पराक्रम देखा जा सकता है । किन्तु यह पुरुष के लिए ही सम्भव है कि वह आत्मविसर्जन में पराक्रम कर दिखाए । भाग्योदय शब्द में हम इसी सार को पहचानें । भाग्यवादी बनना दूसरी चीज़ है, उसमें हम भाग्य को अपने ऊपर मानते हैं । भाग्य का यह मानना बहुत ओछा और अधूरा होता है i सचमुच ही इसे मानने से पुरुषार्थ की हानि होती है । पर भाग्य से अपने को अलग मानने का हमें अधिकार ही कहाँ है? भाग्य के यदि हम आत्मीय बनें तो हमारी उसके साथ लड़ाई ही समाप्त हो जाए । तब भाग्योदय का क्षण हमारे लिए नहीं आता, क्योंकि क्षण-क्षण और प्रतिक्षण हमें भाग्योदय का अनुभव होता है i भाग्य यहाँ से वहां तक हमारे जीवन को उदित और आलोकित करता है । ऐसा व्यक्ति विरोधी यत्न या श्रम नहीं करता । उसकी कुछ अपनी आकांक्षा अथवा वासना नहीं रहती । उसका कर्म इसलिए उसे थकता नहीं, अकर्म की प्रेरणा रहने से उसके कर्म में प्रतिक्रिया नहीं होती, न बन्धन रह जाता है i मनो, कर्म उससे भाग्य ही कराता हैं इसलिए प्रत्येक कर्म उसके भाग्य को प्रशस्त और विस्तृत ही करता जाता है । भाग्य के प्रति अभ्यंतर में अर्पित होकर पुरुष जो भी पुरुषार्थ करता है, वह उसे उत्तरोत्तर मुक्त और समग्र ही करता जाता है । भाग्य के प्रति अवज्ञा रखना अपने से शेष के प्रति अवग्याशील होने के बराबर है । इसे बुद्धि के प्रमाद का ही लक्षण मानना चाहिए । हमारी हस्ती क्या है? आखिर गिनती के कुछ साल हम जीते हैं, फिर हम सदा के लिए मर जाते हैं । चाहे फिर-फिर भी पैदा होते हों, लेकिन हमारी यह अर्हता तो यहीं की यहीं रह जाती है । पर हमारे मर जाने से क्या अस्तित्व कुछ भी घटता है? जगत और इतिहास तो चलता ही रहता है । तब इससे बड़ी मूर्खता दूसरी क्या होगी कि हम अपने कतिपय वर्षों के साढ़े तीन हाथ के सीमित अस्तित्व को सब-कुछ मान लें और उस कारन बाक़ी त्रिकाल-त्रिलोक को अमान्य ठहरा दें । भाग्य को न मानना इस तरह उस सब-कुछ को न मानना है जो सचमुच सीमाहीन भाव से है । सच पूछिए तो उदय उसी का है और हमारे पुरुषार्थ के भीतर से उसी का निहित अर्थ पूरा हो रहा है । उस भाग्य को प्रणत भाव से स्वीकार करने में मैं अपने पुरुषार्थ के परमार्थ को ही स्वीकार करता हूँ, जूस अर्थ को किसी भी अर्थ में और तनिक भी मंद नहीं करता । अर्थ हमारा स्वार्थ बन जाएगा, पुरुषार्थ वह नहीं कहलाएगा, अगर भाग्य के परमार्थ से उसे हम नहीं जोड़ सकेंगे । उस स्वार्थ के जो चक्र में है, वे भाग्योदय के प्रतीक्षा में रहे ही चले जा सकते हैं । क्योंकि जिसके उदय की वे राह देखते हैं वह तो उदित है ही, केवल उनकी पीठ उस तरफ है । इसलिए उन्हें मालूम नहीं है कि जिसको वे सामने देख रहे है वह भी उसी के प्रकाश से प्रकाशित है और कमनीय जान पद रहा है । इच्छाएं नाना हैं और नाना विधि हैं और वे उसे प्रवृत्त रखती हैं । उस प्रवृत्ति से वह रह-रहकर थक जाता है और निवृत्ति चाहता है । यह प्रवृत्ति और निवृत्ति का चक्र उसको द्वंद्व से थका मारता है । इस संसार को अभी राग-भाव से वह चाहता है कि अगले क्षण उतने ही भाव-विराग से वह उसका विनाश चाहता है । पर राग-द्वेष की वासनाओं से अंत में झुंझलाहट और छटपटाहट ही उसे हाथ आती है i ऐसी अवस्था में उसका यह सच्चा भाग्योदय कहलाएगा अगर वह नत-नम्र होकर भाग्य को सिर आँखों लेगा और प्राप्त कर्तव्य में ही अपने पुरुषार्थ की इति मानेगा । —जैनेन्द्र कुमार