महिला सशक्तीकरण पर सर्वाधिक चर्चा नब्बे के दशक से उभरे भूमंडलीकरण के दौरान प्रारंभ हुई। 'विमेन फ्रीलिव' जैसे अप्रासंगिक आन्दोलन ने 'सशक्तीकरण' का जो रूप ग्रहण किया है वह उचित एवं प्रासंगिक दोनों ही है। महिला सशक्तीकरण के सन्दर्भ में जब कानपुर का प्रसंग आता है तो कुछ नाम सहज ही याद आने लगते हैं। इन्हीं व्यक्तियों के कृतित्वों के माध्यम से सशक्तीकरण का जो रूप सामने आता है, मुझे लगता है कि सशक्तीकरण की एक परिभाषा भी उसी में से निकलनी चाहिए।
सन् चौरासी-पच्चासी में जब मैं पत्रकारिता का अध्ययन कर रही थी तो जाकर मिली थी तारन गुजराल से। लाजपत नगर के एक मकान में जब तारन जी से मिली थी तो उनके अन्दर एक कवि की पीड़ा भी थी जो उनकी बातों में शायरी के द्वारा व्यक्त हो रही थी। उनके अन्दर मैंने एक स्वतंत्र चिंतन पाया की वे स्वयं को केवल एक स्त्री के रूप में ही नहीं देखती अपितु अपनी शख्शियत को भी पहचानती थीं।
कथा साहित्य में कानपुर की न होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर पर कानपुर की पहचान अपने वजूद से बनाने वाली सुमति अय्यर को स्मरण किये बिना आगे बढ़ने को मन तैयार नहीं होता। एक संवेदनशील कथाकार का ऐसा दुःखान्त। सोचकर ही मन द्रवित हो जाता है।
महिला सशक्तीकरण के लिए मेरा मानना है कि प्रभावी निर्णय लेने की क्षमता एवं उन निर्णयों को लागू करने की शक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानदंड है। इस सन्दर्भ में डॉ. लक्ष्मी सहगल का कानपुर की सरज़मीं पर होना कनपुरियों के लिए गर्व का विषय है। इसी क्रम में मानवती आर्या का नाम भी उल्लेखनीय है। स्वतंत्रता आन्दोलन में सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज में दोनों ही महिलाओं की प्रभावी भूमिका थी। 'प्रतिष्ठा' से मानवती तक के सफर के बाद भी वह थकी नहीं। किसी भारतीय नारी का यह सबसे सशक्त रूप है जिसमें वह समाज के हित के लिए अपने पति का शव लेकर स्वयं मेडिकल कॉलेज में देहदान के लिए पहुँचती है। यह निर्णय लेने एवं उसे लागू करने की अदम्य शक्ति का परिचायक है। मैं मानवती जी को प्रणाम करती हूँ।
सशक्तीकरण में महिलाओं की स्थिति के सकारात्मक स्वरुप को राजनैतिक शक्ति के द्वारा प्राप्त किया जाना भी आवश्यक है। इस दृष्टि से जब मैं कानपुर में देखती हूँ तो सर्वप्रथम सुशीला रोहतगी जी का उल्लेख करना चाहूंगी। राजनीति के क्षेत्र में सुशीला रोहतगी एक मात्र ऐसी महिला हैं जिन्होंने भारत के पाँचो सदनों में प्रतिनिधित्व किया। चूँकि भारत में पांच ही सदन होते हैं इसलिए उनकी इस विलक्षण प्रतिभा के लिए कानपुर को उनका विशेष रूप से शुक्रगुज़ार होना चाहिए क्योंकि यह कार्य किसी पुरुष ने भी नहीं किया। ये सदन हैं, नगर निगम, विधान सभा, विधान परिषद, लोक सभा एवं राज्य सभा।
मैं पुनः साहित्य के क्षेत्र की ओर लौटी हूँ। काव्य एवं गद्य दोनों में राष्ट्रीय स्टार पर जिन्हें सम्मान एवं प्रतिष्ठा मिली हो और विशेषकर हिंदी साहित्य के अकादमिक पक्ष पर जिनका ऐसा अधिकार हो कि पाठक और आलोचक दोनों ही उनको सच्चे मन से स्वीकारें। वह हैं डॉ. सुमन राजे। जब उनकी काव्य कृति एरिका आई थी तो लगा था कि इतिहास, परंपरा और काव्य की यह अद्भुत चिंतन परक प्रस्तुति है। लेकिन जब उनकी कृति आत्मकथा के भीतर आत्मकथा आई तो उनकी प्रतिभा एवं चिंतन का लोहा पूरे साहित्य जगत ने माना।
साहित्य बिना समालोचना के अधूरा होता है। समालोचना के क्षेत्र में आज के मूर्धन्य प्रज्ञा पुरुष नामवर सिंह के गुरु पंडित देवीशंकर अवस्थी ऐसे लोगों में माने जाए हैं जिन्होंने समालोधना को एक विधा के रूप में स्थापित किया। लेकिन अगर डॉ. कमलेश अवस्थी की संकल्प शक्ति न होती तो एक चमकता सितारा बादलों की ओट में खो जाता क्योंकि जिस प्रकार सर पियरे क्यूरी के वैज्ञानिक खोजपूर्ण कार्य को उनके देहावसान के बाद उनकी पत्नी मैडम क्यूरी ने संसार के सामने प्रस्तुत किया उसी प्रकार डॉ. कमलेश अवस्थी ने स्वर्गीय देवीशंकर अवस्थी के अप्रकाशित कार्य को प्रकाशित करा कर अपनी ऊर्जा शक्ति का परिचय दिया।
शिक्षा के क्षेत्र में कानपुर की दो महिलाओं का उल्लेख अति आवश्यक है। डॉ. हेमलता स्वरुप जो तत्कालीन कानपुर विश्वविद्यालय की कुलपति रहीं एवं डॉ. माधवीलता शुक्ला जो अब एक मृदुल स्मृति के रूप में आज भी हमारे बीच हैं। डॉ. माधवीलता शुक्ला ने साहित्य के क्षेत्र में गीता माधव सन्देश एवं अन्य रचनाओं के माध्यम से तो अतुलनीय योगदान दिया ही है, उन्होंने गीता मेला की एक अभिनव शुरुआत भी कानपुर में की। उन्होंने कानपुर के दक्षिण क्षेत्र में महिला शिक्षा की पूर्णता के लिए बृहस्पति महिला महाविद्यालय की स्थापना भी की।
चिकित्सा के क्षेत्र में महिलाओं की विशेषता के लिए कानपुर विख्यात है। यहाँ पर डॉ. आरती लाल चंदानी का उल्लेख विशेष रूप से इसलिए आवश्यक है कि उन्होंने भारत में पहली बार हिंदी में मेडिसिन जैसे विषय पर पुस्तक लिखी।
-डॉ. अलका दीक्षित
(निदेशक, उत्कर्ष अकादमी स्वरुप नगर कानपुर)
साभार : 'मात्रस्थान' पत्रिका