समय की आवश्यकता और जानकारी प्रत्येक मानव की आवश्यकता है। पुराने समय में लोग सूर्योदय से सूर्यास्त तक समय का ज्ञान सूर्य के प्रकाश से बनने वाली छाया से अनुमान करते थे। युग बदला समय के साथ समय के लिए घड़ी का आविष्कार हुआ और वह मानव प्रचलन का प्रमुख अंग बन गयी। घडी रखना प्रत्येक व्यक्ति के वश की बात न थी, उसकी सम्पूर्ति हेतु विविध राजाओं, रईस व अंग्रेज़ों के संस्थानों ने क्लॉक टावर घंटाघर बनाए जिससे हर किसी को समय का ज्ञान हो सके। कानपुर श्रमिकों का शहर है। इसलिए सबसे पहले श्रमिकों की सुविधा के लिए घड़ी की आवश्यकता महसूस कर लालइमली वूलेन मिल के प्रबंधक गोविन जोंस ने मिल के पूर्वी कोने पर ऊंची मीनार बना कर सन 1880 में घडी स्थापित कराई थी। इस क्लॉक टावर की घडी इंग्लॅण्ड से मंगाई गयी थी। इस टावर को बनवाने में 6 माह का समय तथा 2 लाख रुपये का अर्थव्यय किया गया था। कानपुर के इस प्रथम घंटाघर को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते थे।
कानपुर का दूसरा टावर किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉल फूलबाग़ में सन 1911 में बनाया गया। इसके निर्माण में एक अँगरेज़ अधिकारी बिलक्रिस्ट का योगदान महत्वपूर्ण था उसने स्वयं इसके निर्माण में 30 हज़ार रुपये की धनराशि प्रदान की थी। 11 जून, 1912 को जैमन कोबोल ने इस घंटाघर का शुभारम्भ किया था।
तीसरा क्लॉक टावर शहर की कोतवाली में बनाने की घोषणा फूलबाग़ टावर निर्माण डेढ़ दशक बाद तत्कालीन जनरल रॉबर्ट विन्ट ने की थी। लेकिन कुछ इलेक्ट्रिसिटी कॉरपोरेशन में क्लॉक टावर बनवाने के पक्ष में थे। इसलिए निर्माण ठन्डे बस्ते में पड़ा रहा। सन 1925 में वर्तमान कोतवाली क्लॉक टावर का निर्माण शुरू हुआ इसमें तीन माह के श्रम के बाद 17 जुलाई 1929 को कोतवाली क्लॉक टावर का शुभारम्भ हुआ।
सन् 1931 में कानपुर इलेक्ट्रिसिटी कॉरपोरेशन की ईमारत में क्लॉक टावर बनाया गया इस क्लॉक टावर के निर्माण में 80 हज़ार रूपए व्यय किये गए थे। 1932 में बिजलीघर घंटाघर को शुरू किया गया।
कानपुर के पांचवें क्लॉक टावर का निर्माण एक भारतीय ने कराया था। 1934 में जेके उद्योग समूह के मालिक लाला कमलापति सिंघानिया ने अपने समूह के मुख्यालय पर क्लॉक टॉवर बनवाया जो कमला टावर के रूप में प्रसिद्द है। ऐसा कहा जाता है कि लाला कमलापत सिंघानिया की घड़ी को मात्र एक दिन की कमाई से स्थापित किया गया था। स्वतंत्रता आंदोलन एक भारतीय द्वारा ऐसा निर्माण ब्रिटिश हुक़ूमत के खिलाफ़ विद्रोह जैसा था। लोगों में ख़ुशी की लहर थी। शहर का छठा क्लॉक टावर स्टेशन के पास कलेक्टरगंज चौराहे पर स्थापित किया गया जो आज घंटाघर के नाम से जाना जाता है।
सन 1932 में घंटाघर का निर्माण शुरू हुआ। यह कलात्मक टॉवर मानों क़ुतुबमीनार की झलक प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। यह स्वतंत्र रूप में है, इससे पूर्व सभी घंटाघर किसी भवन का अंग बने हुए थे। इसके निर्माण के लिए जॉर्ज टी बुम का योगदान रहा। घंटाघर निर्माण में तीन वर्ष का समय व पांच लाख रुपये व्यय किए गए।
सबसे अंतिम क्लॉक टावर स्वरुप नगर बाजार का है इसे लोग बिना घड़ी का घंटाघर भी कहते हैं। इसका निर्माण 1946 में लार्ड विलियम ने कराया था। स्वतंत्रता आंदोलन से इसके निर्माण में बाधाएँ आई थीं। घंटाघर की घडी बनी पर प्रारम्भ से ही सुई का पता नहीं है। इस प्रकार शहर के समस्त घंटाघरों जिनमें इंग्लॅण्ड से आई घड़ियाँ बजा करती थीं, आज उपयोगिता के अभाव में दम तोड़ रही हैं। इनकी सुरक्षा की आवश्यकता है, आज भी पर्यटकों की निगाह बरबस इन क्लॉक टॉवरों पर टिक जाती है जो हमारे स्वर्णिम अतीत की झांकी प्रस्तुत कर रहे हैं।
-आकांक्षा शुक्ला
(लेखिका नई दिल्ली में निजी संस्थान में निदेशक के पद पर हैं )