फूलरची !
तुम कारसाज,
धागे-फूल पिरोकर
कितने
सुन्दर अवतंस बुना करती,
मालाओं के कितने मनहर
अनुपम गलहार गुहा करती I
विविध रंग के फूलों से नित
गढ़ती मालाओं की लड़ियाँ,
देवी-देवों की चरण धूलि
बन जाती टूटी पंखुड़ियाँ I
जीवन-बीता पर गुह ना सके
सम्बन्धों की प्रेममयी माला,
कुम्हलाए धागे-पुष्प सकल
सिरजा अमृत, रची हाला I
जीवन-संबंधों के ताने-बाने,
मुझको भी बुनना सिखला दो
कैसे सुरभित रखती हो मनके
जुगत मुझे भी समझा दो I
-ओम