ग़ज़ल का पारम्पिरिक अर्थ दो स्त्रियों की बातचीत बताया जाता है। ‘ग़ज़ल’ ऐसी काव्य विधा को भी कहा गया है जिसमें प्रेमिका के सौंदर्य का वर्णन किया गया हो। ग़ज़ल एक लंबी यात्रा है जो अरबी-फ़ारसी से चलकर उर्दू से होती हुई हिन्दी में आ पहुँची है। कोई भी यात्री जब लंबी यात्रा तय करता है तो उसमें रास्ते कीजगहों की ख़ूबियाँ भी आ जाती हैं। फलतः ग़ज़ल में भी अरबी-फारसी की रूमानियत, उर्दू की मुलायम ख़याली और हिन्दी की आत्मिक पवित्रता विद्यमान है। हिन्दी में ग़ज़ल कुछ-कुछ अपने उपर्युक्त संदर्भों से ही ग्रहण की गई है। इसलिए हिन्दी तक आते-आते ग़ज़ल पारंपरिक परिभाषा से हटती हुई प्रतीत होती है। इसे समसामयिक मूल्यों की तल्खी से भी जोड़ा जा सकता है। आज की ग़ज़ल अपनी दृश्यात्मक और ध्वन्यात्मकता के कारण रचनाकारों की विशेष प्रिय विधा बन गई है। कानपुर का यह सौभाग्य रहा है कि यहाँ हिन्दी, अरबी-फ़ारसी और उर्दू काव्य का साथ-साथ विकास हुआ है। अगर यहाँ महर्षि वाल्मीकि से लेकर आज तक के हिन्दी काव्य प्रणेताओं का लंबा इतिहास मिलता है तो अरबी-फ़ारसी, उर्दू के बेहतरीन शायरों का लंबा सिलसिला भी आज तक चला आ रहा है। जहाँ एक ओर यहाँ समस्यापूर्ति-कविगोष्ठियों की सुदीर्घ परंपरा रही है वहीं तरही नशिस्तों और मुशायरों का क्रम अभी भी बना हुआ है। इसलिए चाहे देश में कमल खिलें या संकीर्ण विचारधाराओं का कीचड़ बना हुआ है, पर कानपुर की गंगा-जमुनी संस्कृति पर कोई असर नहीं दिखाई पड़ता। ग़ज़ल ने कानपुर के उस रंग को और निखार दिया है।
कानपुर के सुरम्य वातावरण को और भी सरस बनाते जो नाम मेरे कानों में पड़े है, उनमें जनाब हसरत मोहानी का नाम सबसे ऊपर है। फिर तो जनाब कौसर जायसी, कमाल जायसी, क़मर लखनवी, नाशाद फ़ैज़ाबादी, कामिल फ़तेहपुरी, हक़ बनारसी, शायर फ़तेहपुरी, वर्मा कानपुरी, ज़हीर कानपुरी और इरशाद कानपुरी जैसे ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षरों को देखने-सुनने और पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह सब जन्नतनशीं उस्ताद जनाब कृष्ण मुरारी लाल श्रीवास्तव नाशाद अर्जुनपुरी साहब के करम से हुआ। कानपुर में देवेन्द्रनाथ शास्त्री, हितैशी, हृदयेश, सिद्धेश्वर अवस्थी, श्याम नारायण वर्मा, सिन्दूर, चन्द्रेश, कृष्ण नंद चैबेण् अशोक निर्मल, जीवन शुक्ल, मानव और वीरेश कात्यायन आदि नाम गिनाए जा सकते हैं।
कानपुर में अनेक संस्थाएँ, ग़ज़लगो रचनाकारों के लिए बनी हैं उनमें नाशाद अर्जुनपुरी साहब द्वारा स्थापित कुछ हिन्दी उर्दू हिन्दी समिति मुख्य हैं। इस संस्था के मुख्य हस्ताक्षर श्री रामकृष्ण प्रेमी, डॉ. प्रतीक मिश्र, और सत्यप्रकाश शर्मा जैसे सशक्त लोग हैं। इधर पं0 कृष्णानंद चौबे ने अनेक नये लोगों को लेकर कवि कुल का निर्माण किया और उर्दू ग़ज़ल की इसलाह परंपरा का पूरे तौर से निर्वाह करते हुए प्रमोद तिवारी, मृदुल तिवारी, राजेन्द्र तिवारी, लालमन आज़ाद, अंसार कंबरी, जैसे सशक्त हस्ताक्षर हिन्दी ग़ज़ल परंपरा को समर्पित किए। उपर्युक्त नामों के अतिरिक्त स्व0 श्रीमती कमला गुप्ता, श्रीमती विद्या सक्सेना , डाॅ. कमल शंकर दवे , श्री कमल किशोर 'श्रमिक' , रवि शंकर मिश्र, लक्ष्मी शंकर वाजपेई, पीयूष अवस्थी, शिव कुमार सिंह 'कुंवर' डॉ. अवधेश दीक्षित, विश्वम्भर नाथ त्रिपाठी, कमलेश द्विवेदी, जयराम सिंह जय, असीम त्रिवेदी, प्रदीप श्रीवास्तव भी कानपुर के ग़ज़लगो रचनाकारों में अपना प्रमुख स्थान रखते हैं।
-उपेंद्र शास्त्री
नवाबगंज, कानपुर ।