हिन्दी साहित्य में अपने गद्य-गीतों के लिए प्रसिद्ध, राय कृष्णदास का जन्म काशी के प्रसिद्ध राय परिवार में 7 नवम्बर सन 1892 ई0 में हुआ था । यह परिवार कला, संस्कृति और साहित्य-प्रेम के लिए विख्यात रहा है । राय साहब की स्कूली शिक्षा बहुत स्वल्प हुई, पर इनमें उत्कट ज्ञान-लिप्सा थी । आपने स्वतंत्र रूप से हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेज़ी भाषाओं का अध्ययन किया और इनमें अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली । वर्ष 1980 में, भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्म-भूषण’ अलंकरण से सम्मानित किया । ‘आनन्द की खोज, पागल पथिक’ राय साहब का एक ऐसा गद्य-गीत है जो आनन्द के अक्षय स्रोत का पता देता है । यह हमें बताता है कि हमें पूर्ण सुख और आनन्द की प्राप्ति हो सकती है, लेकिन इसके लिए हमें अपने सही स्वरुप को जानने का प्रयास अवश्य करना पड़ेगा ।
आनन्द की खोज
आनन्द की खोज में मैं कहाँ-कहाँ न फिरा ? सब जगह से मुझे उसी भाँति कलपते हुए निराश लौटना पड़ा जैसे चन्द्र की ओर से चकोर लड़खड़ाता हुआ फिरता है ।
मेरे सिर पर कोई हाथ रखने वाला न था और मैं रह-रहकर यही बिलखता कि जगन्नाथ के रहते भी मैं अनाथ कैसे रहता हूँ, क्या मैं जगत के बाहर हूँ ?
मुझे यह सोचकर अचरज होता कि आनन्द-कांड-मूलक इस विश्व-वल्लरी में मुझे आनन्द का अणुमात्र भी न मिला । हा ! आनन्द के बदले में रुदन और शोच परिपोषित कर रहा था ।
अन्त को मुझसे न रहा गया । मैं चिल्ला उठा—आनन्द, आनन्द, कहाँ है आनन्द ! हाय ! तेरी खोज मैं मैंने व्यर्थ जीवन गँवाया । बाह्य प्रकृति ने मेरे शब्दों को दुहराया, किन्तु मेरी आन्तरिक प्रकृति स्तब्ध थी । अतएव मुझे अतीव आश्चर्य हुआ । पर इसी समय ब्रह्माण्ड का प्रत्येक कण सजीव होकर मुझसे पूछ उठा—क्या कभी अपने-आप में भी देखा था? मैं अवाक् था ।
सच तो यह है । जब मैंने—उसी विश्व के एक अंश—अपने-आप तक में न खोजा था तब मैंने यह कैसे कहा कि समस्त सृष्टि छान डाली? जो वस्तु मैं ही अपने-आप को न दे सका वह भला दुसरे मुझे क्यों देने लगे?
परन्तु, यहाँ तो जो वस्तु मैं अपने-आप को न दे सका था वह मुझे अखिल ब्रह्माण्ड से मिली, जो मुझे अखिल ब्रह्माण्ड से न मिली थी वह अपने-आप में मिली ।
पागल पथिक
‘पथिक’—मैंने पूछा—“तुम कहाँ से चले हो और कहाँ जा रहे हो? तुम्हारी यात्रा तो लम्बी मालूम पड़ती है क्योंकि तुम्हारा तन सूखकर काँटा हो रहा है और उस पर का फटा वस्त्र तुम्हारे विदीर्ण ह्रदय की साख भर रहा है । श्रम से हारकर तुम्हारे पैर फूट-फूटकर रक्त के आंसू रो रहे हैं ! यह बात क्या है?”
उसने दैन्य से दांत निकालकर उत्तर दिया—“बन्धु, मैं अपना मार्ग भूल गया हूँ । इस संसार के बाहर एक ऐसा स्थान है जहाँ इसके सुख और विलास की समस्त सामग्रियां तो अपने पूर्ण सौन्दर्य में मिलती हैं पर दुःख का वहां लेश भी नहीं है । मेरे गुरु ने मुझे उसका ठीक पता बताया था और मैं चला भी था उसी पर । किन्तु मुझसे न जाने कौन सी भूल हो गई है कि मैं घूम-फिरकर बार-बार यहीं आ जाता हूँ । जो हो, मैं कभी न कभी वहां अवश्य पहुँचूँगा ।”
मैंने सखेद कहा, “हाय! तुम भारी भूल में पड़े हो । भला इस विश्व-मण्डल के बाहर तुम जा कैसे सकते हो? तुम जहाँ से चलोगे फिर वहीं पहुँच जाओगे । यह तो घटाकार न है । फिर, तुम उस स्थान की कल्पना तो इसी आदर्श पर करते हो जब तुम्हें इस मूल ही में सुख नहीं मिलता तब अनुकरण में उसे कैसे पाओगे? मित्र, यहाँ तो सुख के साथ दुःख लगा है और उससे सुख को अलग कर लेने के उद्योग में भी एक सुख है । जब उसे ही नहीं पा सकते तब वहां का निरन्तर सुख तो तुम्हें एक अपरिवर्तनशील बोझ, नहीं यातना हो जाएगी । अरे, बिना नव्यता के सुख कहाँ? तुम्हारी यह कल्पना और संकल्प नितांत मिथ्या और निस्सार है, और इसे छोड़ने ही में तुम्हें इतना सुख मिलेगा कि तुम छक जाओगे ।”
परन्तु उसने मेरी एक न सुनी और अपनी राम-पोटरिया उठाकर चलता बना ।
—राय कृष्णदास
आकाशवाणी के कानपुर केंद्र पर वर्ष १९९३ से उद्घोषक के रूप में सेवाएं प्रदान कर रहा हूँ. रेडियो के दैनिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त अब तक कई रेडियो नाटक एवं कार्यक्रम श्रृंखला लिखने का अवसर प्राप्त हो चुका है. D