कर हैं हमारे किन्तु अब कर्तृत्व हममें है नहीं,
हैं भारतीय परन्तु हम बनते विदेशी सब कहीं !
रखते हृदय हैं किन्तु हम रखते न सहृदयता वहाँ,
हम हैं मनुज पर हाय ! अब मनुजत्व हममें है कहाँ ? ॥३०२॥
मन में नहीं है बल हमारे, तेज चेष्टा में नहीं,
उद्योग में साहस नहीं, अपमान में न घृणा कहीं।
दासत्व में न यहाँ अरुचि है, प्रेम में प्रियता नहीं;
हो अन्त में आशा कहाँ ? कर्तव्य में क्रियता नहीं !॥३०३।।
उत्साह उन्नति का नहीं है, खेद अवनति का नहीं,
है स्वल्प-सा भी ध्यान हमको समय की गति का नहीं।
हम भीरुता के भक्त हैं, अति विदित विषयासक्त हैं,
श्रम से सदैव विरक्त हैं, आलस्य में अनुरक्त हैं ।। ३०४ ॥