सन्तान कैसी है हमारी, सो हमी से जान लो,
मुख देखकर ही बुद्धि से मन को स्वयं पहचान लो।
बस बीज के अनुरूप ही अंकुर प्रकट होते सदा,
हम रख सके रक्षित न हा! सन्तान-सी भी सम्पदा ! ॥२४१॥
हैं आप बच्चे बाप जिनके पुष्ट हों वे क्यों भला?
आश्चर्य है, अब भी हमारा वंश जाता है चला !
दुर्भाग्य ने दुर्बोध करके है हमें कैसा छला,
हा! रह गई है शेष अब तो एक ही शशि की कला ! ॥२४२।।
कितना अनिष्ट किया हमारा हाय ! बाल्य-विवाह ने,
अन्धा बनाया है हमें उस नातियों की चाह ने !
हा ! ग्रस लिया है वीर्य-बल को मोहरूपी ग्राह ने,
सारे गुणों को है बहाया इस कुरीति-प्रवाह ने ॥२४३॥
अल्पायु में हैं हम सुतों का ब्याह करते किसलिए?
गार्हस्थ्य का सुख शीघ्र ही पाने लगें वे, इसलिए?
वात्सल्य है या वैर है यह, हाय ! कैसा कष्ट है?
परिपुष्टता के पूर्व ही बल-वीर्य्य होता नष्ट है ! ॥२४४||
उस ब्रह्मचर्याश्रम-नियम का ध्यान जब से हट गया-
सम्पूर्ण शारीरिक तथा वह मानसिक बल घट गया !
हैं हाय ! काहे के पुरुष हम, जब कि पौरुष ही नहीं?
निःशक्त पुतले भी भला पौरुष दिखा सकते कहीं ! ॥२४५।।
यदि ब्रह्मचर्याश्रम मिटाकर शक्ति को खोते नहीं-
तो आज दिन मृत जातियों में गण्य हम होते नहीं।
करते नवाविष्कार जैसे दूसरे हैं कर रहे-
भरते यशोभाण्डार जैसे दूसरे हैं भर रहे ॥२४६।।
जो हाल ऐसा ही रहा तो देखना, है क्या अभी,
होंगे यहाँ तक क्षीण हम विस्मय बढ़ावेंगे कभी।
सिद्धान्त अपना उलट देंगे डारविन साहब यहाँ-
हो क्षुद्रकाय अबोध नर बन्दर बनेंगे जब यहाँ ! ॥२४७||