उस साम्प्रतिक साहित्य पर भी ध्यान देना चाहिए,
उसकी अवस्था भी हमें कुछ जान लेना चाहिए।
मृत हो कि जीवित, जाति का साहित्य जीवन-चित्र है,
वह भ्रष्ट है तो सिद्ध फिर वह जाति भी अपवित्र है॥१५७॥
जिस जाति का साहित्य था स्वर्गीय भावों से भरा
करने लगा अब बस विषय के विष-विटप को वह हरा!
श्रुति, शास्त्र, सूत्र पुराण, रामायण, महाभारत हटे,
वे नायिकाभेदादि उनके स्थान में हैं आ डटे !! ॥१५८॥
हम तो हुए ही पतित पर दुर्भाव जो भरते गये-
सुकुमार भावी सृष्टि को भी वे पतित करते गये !
हा ! उच्च भावों का वही क्रम आज भी है खो रहा,
अश्लील ग्रन्थों से हमारा शील चौपट हो रहा !॥१५९॥
अब सिद्ध हिन्दी ही यहाँ की राष्ट्र-भाषा हो रही,
पर है वही सबसे अधिक साहित्य के हित रो रही !
रीते पड़े अब तक अहो ! उसके अखिल भाण्डार हैं,
तुलसी तथा सूरादि के कुछ रत्न ही आधार हैं !!॥१६०॥