विक्रम कि जिनका आज भी संवत् यहाँ है चल रहा
ध्रुव-धर्म को ऐसे नृपों का उस समय भी बल रहा।
जिनसे अनेकों देश-हित कर पुण्य कार्य किये गये,
जो शक यहाँ शासक बने थे सब निकाल दिये गये ॥२१३॥
नर-रूप-रत्नों से सजी थी वीर विक्रम की सभा,
अब भी जगत् में जागती है जगमगी जिनकी प्रभा।
जाकर सुनो, उज्जैन मानो आज भी यह कह रही
"मैं मिट गई पर कीर्ति मेरी तब मिटेगी जब मही" ॥२१४॥