पाण्डित्य का इस देश में सब ओर पूर्ण विकास था,
बस, दुर्गुणों के ग्रहण में ही अज्ञता का वास था।
सब लोग तत्त्व-ज्ञान में संलग्न रहते थे यहाँ
हां, व्याध भी वेदान्त के सिद्धान्त कहते थे यहाँ ! ॥७५॥
जिसकी प्रभा के सामने रवि-तेज भी फीका पड़ा,
अध्यात्म-विद्या का यहाँ आलोक फैला था बड़ा !
मानस-कमल सबके यहाँ दिन-रात रहते थे खिले,
मानो सभी जन ईश की ज्योतिश्छटा में थे मिले ॥७६॥
समझा प्रथम किसने जगत में गूढ़ सृष्टि-महत्त्व को ?
जाना कहो किसने प्रथम जीवन-मरण के तत्त्व को ?
आभास ईश्वर-जीव का कैवल्य तक किसने दिया ?
सुन लो, प्रतिध्वनि हो रही, यह कार्य्य आर्य्योँ ने किया ॥७७॥
हम वेद, वाकोवाक्य-विद्या, ब्रह्मविद्या-विज्ञ थे,
नक्षत्र-विद्या, क्षत्र-विद्या, भूत-विद्याऽभिज्ञ थे।
निधि-नीति-विद्या, राशि-विद्या, पित्र्य-विद्या में बढ़े,
सर्पादि-विद्या, देव-विद्या, दैव-विद्या थे पढ़े ॥७८॥
आये नहीं थे स्वप्न में भी जो किसी के ध्यान में,
वे प्रश्न पहले हल हुए थे एक हिन्दुस्तान में !
सिद्धान्त मानव-जाति के जो विश्व में वितरित हुए,
बस, भारतीय तपोबनों में थे प्रथम निश्चित हुए ॥७९॥
थे योग-बल से वश हमारे नित्य पांचों तत्त्व भी,
मर्त्यत्व में वह शक्ति थी रखता न जो अमरत्व भी।
संसार-पथ में वह हमारी गति कहीं रुकती न थी,
विस्तृत हमारी आयु वह चिर्काल तक चुकती न थी ॥८०॥
जो श्रम उठाकर यत्न से की जाय खोज जहाँ तहाँ,
विश्वास है, तो आज भी योगी मिलें ऐसे यहाँ
जो शून्य में संस्थित रहें भोजन बिना न कभी मरे;
अविचल समाधिस्थित रहें, द्रुत देह परिवर्तित करें ॥८१॥
हाँ, वह मन:साक्षित्व-विद्या की विलक्षण साधना;
वह मेस्मरेजिम की महत्ता, प्रेत-चक्राराधना।
आश्चर्यकारक और भी वे आधुनिक बहु वृद्धियाँ,
कहना वृथा है, हैं हमारे योग की लघु सिद्धियाँ ॥८२॥