सम्मान्य बनने को यहाँ वक्तृत्व अच्छी युक्ति है,
अगुआ हमारा है वही जिसके गले में उक्ति है।
उपदेशकों में आज कितने लोग ऐसे हैं, कहें,
उपदेश के अनुसार जो वे आप भी चलते रहें ? ॥ १७७॥
उनकी गल-ध्वनि कर्ण में ही कठिनता से पैठती,
अन्तःकरण की बात ही अन्तःकरण में बैठती ।
कहना तथा करना परस्पर एक-सा जिनका नहीं
उनके कथन का भी भला कुछ मूल्य होता है कहीं ? ॥१७८॥
है वेष तक उनका विदेशी और यह उपदेश है
"त्यागो विदेशी वस्तुएँ पहला यही उद्देश है।"
लो, पीट दो सब तालियाँ उपदेश है कैसा खरा,
उपदेशको ! पर आप अपनी ओर तो देखो ज़रा ! ॥१७९ ॥