पर हाय ! अब भी तो नहीं निद्रा हमारी टूटती,
कैसी कुटेवें हैं कि जो अब भी नहीं हैं छूटती ।।
बेसुध अभी तक हैं, न जाने कौन ऐसा रस पिया ?
देखा बहुत कुछ किन्तु हमने सब बिना देखा किया ! ।।२४८।।
हैं घट गये सम्प्रति हमारे चरित ऐसे सर्वथा,
कवि-कल्पना-सा जान पड़ती पूर्वजों की वह कथा !
आश्चर्य क्या जो फिर हमें वह युक्ति-युक्त जंचे नहीं,
छोटे दिलों में भी बड़ी बातें समा सकती कहीं ! ।। २४९ ।।
गायक मदन शिशु जो कहीं होता पुरातन काल में,
होते कहीं ये भीमकर्मा राममूर्ति न हाल में,
लेते न सम्प्रति जन्म जो वे आधुनिक अर्जुन कई,
इनकी कथा भी कल्पना की दौड़ कहलाती नई ॥ २५० ।।
सारे जगत में जब परा-विद्या प्रमुखता पायगी-
उत्पत्ति भारत में तथा उसकी बताई जायगी ।
तब भी कदाचित् मुंह बना कर कह उठेंगे हम यही-
क्यों जो, हमारे पूर्वजों की यह कथा क्या है सही ?।।२५१।।
संसार रूप शरीर में जो प्राण रूप प्रसिद्ध था,
सब सिद्धियों में जो कभी सम्पूर्णता से सिद्ध था ।
हा हन्त ! जीते जी वही अब हो रहा म्रियमाण है,
अब लोक-रूप-मयङ्क में भारत कलङ्क-समान है ! ।।२५२।।
हा देव ! अब वे दिन कहाँ हैं और वे रातें कहाँ ?
हैं काल की घातें कि कल की आज हैं बातें कहाँ ?
क्या थे तथा अब क्या हुए हम, जानता बस काल है;
भगवान जाने, काल की कैसी निराली चाल है !!!।।२५३।।