shabd-logo

प्राचीन भारत की एक झलक

14 अप्रैल 2022

19 बार देखा गया 19

समयावरण से पार करके ऐतिहासिक दृष्टि को, 

जो देखते हैं आज भी हम पूर्वकालिक सृष्टि को । 

तो दीखता है दृश्य ऐसा भारतीय-विकास का,

प्रतिविम्ब एक सजीव है जो स्वर्ग या आकाश का ॥१४३॥ 

भारतभूमि

ब्राह्मी-स्वरूपा, जन्मदात्री, ज्ञान-गौरव-शालिनी, 

प्रत्यक्ष लक्ष्मीरूपिणी, धन-धान्य-पूर्णा,पालिनी ।

दुद्धर्ष रुद्राणी स्वरूपा शत्रु -सृष्टि-लयङ्करी,

वह भूमि भारतवर्ष की है भूरि भावों से भरी ॥१४४॥ 

वे ही नगर, वन, शैल, नदियाँ जो कि पहले थीं यहाँ-

हैं आज भी, पर आज वैसी जान पड़ती हैं कहाँ ? 

कारण कदाचित है यही--बदले स्वयं हम आज हैं, 

अनुरूप ही अपनी दशा के दीखते सब साज हैं ॥१४५॥

भवन

चित्रित घनों से होड़ कर जो व्योम में फहरा रहे-

वे केतु उन्नत मन्दिरों के किस तरह लहरा रहे ! 

इन मन्दिरों में से अधिक अब भूमि-तल में दब गये,

अवशिष्ट ऐसे दीखते हैं-अबी गये या तब गये ! ॥१४६॥ 

जल-वायु

पीयूष-सम पीकर जिसे होता प्रसन्न शरीर है, 

आलस्य-नाशक, बल-विकाशक उस समय का नीर है।

है आज भी वह, किन्तु अब पड़ता न पूर्व प्रभाव है, 

यह कौन जाने नीर बदला या शरीर-स्वभाव है ? ॥१४७॥ 

उत्साहपूर्वक दे रहा जो स्वास्थ्य वा दीर्घायु है, 

कैसे कहें, कैसा मनोरम उस समय का वायु है । 

भगवान जानें, आज कल वह वायु चलता ही नहीं,

अथवा हमारे पास होकर वह निकलता ही नहीं ?॥१४८॥ 

प्रभात

क्या ही पुनीत प्रभात है, कैसी चमकती है मही; 

अनुरागिणी ऊषा सभी को कर्म में रत कर रही । 

यद्यपि जगाती है हमें भी देर तक प्रति दिन वही, 

पर हम अविध निद्रा-निकट सुनते कहाँ उसकी कही ?॥१४९॥ 

गङ्गादि नदियों के किनारे भीड़ छवि पाने लगी, 

मिल कर जल-ध्वनि में गल-ध्वनि अमृत बरसाने लगी। 

सस्वर इधर श्रुति-मन्त्र लहरी, उधर जल-लहरी अहा !

तिस पर उमङ्गों की तरङ्गे, स्वर्ग में अब क्या रहा ?॥१५०॥ 

दान

सुस्नान के पीछे यथाक्रम दान की बारी हुई, 

सर्वस्व तक के त्याग की सानन्द तैयारी हुई ! 

दानी बहुत हैं किन्तु याचक अल्प हैं उस काल में, 

ऐसा नहीं जैसी कि अब प्रतिकूलता है हाल में ॥१५१॥

दिनकर द्विजों से अर्घ्य पाकर उठ चला आकाश में, 

सब भूमि शोभित हो उठी अब स्वर्ण-वर्ण प्रकाश में।

वह आन्तरिक आलोक इस आलोक में ही मिल गया, 

रवि का मुकुट धारण किया, स्वाधीन भारत खिल गया ॥१५२॥

गो-पालन

जो अन्य धात्री के सदृश सबको पिलाती दुग्ध हैं, 

(है जो अमृत इस लोक का, जिस पर अमर भी मुग्ध हैं।) 

वे धेनुएँ प्रत्येक गृह में हैं दुही जाने लगीं-

या शक्ति की नदियाँ वहाँ सर्वत्र लहराने लगीं ॥१५३॥ 

घृत आदि के आधिक्य से बल-वीर्य का सु-विकास है, 

क्या आजकल का-सा कहीं भी व्याधियों का वास है? 

है उस समय गो-वंश पलता, इस समय मरता वही ! 

क्या एक हो सकती कभी यह और वह भारत मही? ॥१५४||

होमाग्नि

निर्मल पवन जिसकी शिखा को तनिक चंचल कर उठी-

होमाग्नि जल कर द्विज-गृहों में पुण्य-परिमल भर उठी। 

प्राची दिशा के साथ भारत-भूमि जगमग जग उठी,

आलस्य में उत्साह की-सी आग देखो, लग उठी ॥१५५॥

देवालय

नर-नारियों का मन्दिरों में आगमन होने लगा, 

दर्शन, श्रवण, कीर्तन, मनन से मग्न मन होने लगा। 

ले ईश-चरणामृत मुदित राजा-प्रजा अति चाव से-

कर्तव्य दृढ़ता की विनय करने लगे समभाव से ॥१५६॥

श्रद्धा सहित किस भाँति हरि का पुण्य पूजन हो रहा, 

वर वेद-मन्त्रों में मनोहर कीर्ति-कूजन हो रहा। 

अखिलेश की उस आर्तिहरिणी आरती को देख लो, 

असमर्थ, मूक-समान, मुखरा भारती को देख लो ॥१५७॥

अतिथि-सत्कार

अपने अतिथियों से वचन जाकर गृहस्थों ने कहे-

"सम्मान्य ! आप यहाँ निशा में कुशल-पूर्वक तो रहे। 

हमसे हुई हो चूक जो कृपया क्षमा कर दीजिए-

अनुचित न हो तो, आज भी यह गेह पावन कीजिए" ॥१५८॥ 

पुरुष

पुरूष-प्रवर उस काल के कैसे सदाशय हैं अहा ! 

संसार को उनका सुयश कैसा समुज्ज्वल कर रहा ! 

तन में अलौकिक कान्ति है, मन में महा सुख-शान्ति है, 

देखो न, उनको देखकर होती सुरों की भ्रान्ति है ! ॥१५९॥

मस्तिष्क उनका ज्ञान का, विज्ञान का भाण्डार है, 

है सूक्ष्म बुद्धि-विचार उनका, विपुल बल-विस्तार है, 

नव-नव कलाओं का कभी लोकार्थ आविष्कार है, 

अध्यात्म तत्त्वों का कभी उद्गार और प्रचार है ॥१६०॥ 

स्त्रियाँ

पूजन किया पति का स्त्रियों ने भक्ति-पूर्ण विधान से, 

अंचल पसार प्रणाम कर फिर की विनय भगवान् से-

"विश्वेश ! हम अबला जनों के बल तुम्हीं हो सर्वदा, 

पतिदेव में मति, गति तथा दृढ़ हो हमारी रति सदा" ॥१६१॥

हैं प्रीति और पवित्रता की मूर्ति-सी वे नारियाँ, 

हैं गेह में वे शक्तिरूपा, देह में सुकुमारियाँ। 

गृहिणी तथा मन्त्री स्वपति की शिक्षिता हैं वे सती,

 ऐसी नहीं हैं वे कि जैसी आजकल की श्रीमती ॥१६२॥

घर का हिसाब-किताब सारा है उन्हीं के हाथ में, 

व्यवहार उनके हैं दयामय सब किसी के साथ में। 

पाक-शास्त्र वे विशारदा हैं और वैद्यक जानती, 

सबको सदा सन्तुष्ट रखना धर्म अपना मानतीं ॥१६३॥

आलस्य में अवकाश को वे व्यर्थ ही खोती नहीं, 

दिन क्या, निशा में भी कभी पति से प्रथम सोती नहीं, 

सीना, पिरोना, चित्रकारी जानती हैं वे सभी-

संगीत भी, पर गीत गन्दे वे नहीं गाती कभी ॥१६४||

संसार-यात्रा में स्वपति की वे अटल अश्रान्ति हैं, 

हैं दुःख में वे धीरता, सुख में सदा वे शान्ति हैं। 

शुभ सान्त्वना हैं शोक में वे, और औषधि रोग में, 

संयोग में सम्पत्ति हैं, बस हैं विपत्ति वियोग में ॥१६५॥

सन्तान

जब हैं स्त्रियाँ यों देवियाँ, सन्तान क्यों उत्तम न हो? 

उन बालकों के सरल, सुन्दर भाव तो देखो अहो ! 

ऊषाऽगमन से जाग वे भी ईश-गुण गाने लगे-

या कुंज फूले देख बन्दी भृंग उड़ जाने लगे ! ॥१६६॥

हैं हृष्ट-पुष्ट शरीर से, माँ-बाप के वे प्राण हैं- 

जो सर्वदा करते दृगों की भाँति उनका त्राण हैं। 

वे जायँ जब तक गुरुकुलों में, ज्ञान का घर है जहाँ-

तब तक उन्हें कुछ कुछ पढ़ाती आप माताएँ यहाँ ॥१६७||

है ठीक पुत्रों के सदृश ही पुत्रियों का मान भी, 

क्या आज की-सी है दशा, जो हो न उनका ध्यान भी! 

हैं उस समय के जन न अब-से जो उन्हें समझें बला,

होंगे न दोनों नेत्र किसको एक-से प्यारे भला? ॥१६८॥

देखो, अहा ! वे पुत्रियाँ हैं या विभव की वृद्धियाँ, 

अवतीर्ण मानो हैं हुई प्रत्यक्ष उनके ऋद्धियाँ, 

हा ! अब उन्हीं के जन्म से हम डूबते हैं शोक में, 

पर हो न उनका जन्म तो हों पुत्र कैसे लोक में? ॥१६९॥ 

तपोवन

मृग और सिंह तपोवनों में साथ ही फिरने लगे, 

शुचि होम-धूप उठे कि सुन्दर सुरभि-घन घिरने लगे। 

ऋषि-मुनि मुदित मन से यथा-विधि हवन क्या करने लगे-

उपकार मूलक पुण्य के भाण्डार-से भरने लगे ॥१७०।। 

वे सौम्य ऋषि-मुनि आजकल के साधुओं जैसे नहीं, 

कोई विषय जिनसे छिपा हो विज्ञ वे ऐसे नहीं। 

हस्तामलक जैसे उन्हें प्रत्यक्ष तीनों काल हैं, 

शिवरूप हैं, तोड़े उन्होंने बन्धनों के जाल हैं ॥१७१॥

वे ग्रन्थ जो सर्वत्र ही गुरुमान से मण्डित हुए-

पढ़कर जिन्हें संसार के तत्त्वज्ञ-जन पण्डित हुए। 

जो आज भी थोड़े बहुत हैं नष्ट होने से बचे, 

हैं वे उन्हीं तप के धनी ऋषि और मुनियों के रचे ॥१७२।। 

कुशपाणि पाकर भी उन्हें डरता स्वयं वज्री सदा। 

है तुच्छ उनके निकट यद्यपि उस सुरप की सम्पदा। 

यद्यपि उटजवासी तदपि वह तत्त्व उनके पास है, 

आकर अलेक्जेंडर-सदृश सम्राट् बनता दास है ! ॥१७३॥

गुरुकुल

विद्यार्थियों ने जागकर गुरुदेव का वन्दन किया, 

निज नित्यकृत्य समाप्त करके अध्ययन में मन दिया। 

जिस ब्रह्मचर्य-व्रत बिना हैं आज हम सब रो रहे-

उसके सहित वे धीर होकर वीर भी हैं हो रहे ॥१७४॥

पाठ

आधार आर्यों के अटल जातीय-जीवन-प्राण का-

है पाठ कैसा हो रहा श्रुति, शास्त्र और पुराण का। 

हे राम ! हिन्दू जाति का सब कुछ भले ही नष्ट हो-

पर यह सरस संगीत उसका फिर यहाँ सु-स्पष्ट हो ॥१७५॥

फीस

पढ़ते सहस्त्रों शिष्य हैं पर फीस ली जाती नहीं, 

वह उच्च शिक्षा तुच्छ धन पर बेच दी जाती नहीं। 

दे वस्त्र-भोजन भी स्वयं कुलपति पढ़ाते हैं उन्हें, 

बस, भक्ति से सन्तुष्ट हो दिन दिन बढ़ाते हैं उन्हें ॥१७६।।

भिक्षा

वे ब्रह्मचारी जिस समय गुरुदेव के आदेश से-

पहुँचे नहीं भिक्षार्थ पुर में बालरूप महेश-से, 

ले सात्त्विकी भिक्षा प्रथम ही गृहिणियाँ हर्षित बड़ी-

करने लगीं उनकी प्रतीक्षा द्वार पर होकर खड़ी ॥१७७॥ 

है आजकल की भाँति वह भिक्षा नहीं अपमान की, 

है प्रार्थनीय गृही जनों को यह व्यवस्था दान की। 

वे ब्रह्मचारी भिक्षुवर ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं-

भूपाल भी पथ छोड़कर उनपर दिखाते भक्ति हैं ॥१७८॥

राजा

देखो, महीपति उस समय के हैं प्रजा-पालक सभी, 

रहते हुए उनके किसी को कष्ट हो सकता कभी? 

किस भाँति पावें कर, न यदि वे न्याय से शासन करें, 

जो वे अनीति करें कहीं तो वेन की गति से मरें ॥१७९॥ 

अनिवार्य शिक्षा

हैं खोजने से भी कहीं द्विज मूर्ख मिल सकते नहीं, 

अनिवार्य शिक्षा के नियम हैं जो कि हिल सकते नहीं। 

यदि गाँव में द्विज एक भी विद्या न विधिपूर्वक पढ़े-

तो दण्ड दे उसको नृपति, फिर क्यों न यों शिक्षा बढ़े? ॥१८०॥

है नित्य विप्रों के यहाँ बस, ज्ञान-चर्चा दीखती, 

शुक-सारिकाएँ भी जहाँ शास्त्रार्थ करना सीखतीं। 

कोई जगत् को सत्य, कोई स्वप्न-मात्र बता रहा, 

कोई शकुनि उनमें वहाँ मध्यस्थ भाव जता रहा ॥१८१॥ 

चारित्र्य

देखो कि सबके साथ सबका निष्कपट बर्ताव है, 

सबमें परस्पर दीख पड़ता प्रेम का सद्भाव है। 

कैसे फले-फूलें भला वे जो न हिलमिल कर रहें? 

वे आर्य ही क्या, यदि कभी परिवाद निज मुख से कहें ॥१८२॥ 

ठग और चोर कहीं नहीं हैं, धर्म का अति ध्यान है, 

देखे न देखे और कोई, देखता भगवान् है। 

सूना पड़ा हो माल कोई, किन्तु जा सकता नहीं, 

कोई प्रलोभन शान्त मन को है भुला सकता नहीं ॥१८३।।

यदि झूठ कहने पर किसी का टिक रहा सर्वस्व भी

तो भी कहेगा सत्य ही वह क्योंकि मरना है कभी। 

पंचायतों में समय पर, दृष्टान्त ऐसे दीखते, 

हैं धर्म का सब पाठ मानो गर्भ में ही सीखते ॥१८४॥ 

हैं भाव सबके आननों पर ईश्वरीय प्रसाद के, 

इस लोक में उनके हृदय आधार हैं आह्लाद के। 

मरते नहीं वह मौत वे जो फिर उन्हें मरना पड़े, 

करते नहीं वह काम उनको नाम जो धरना पड़े ॥१८५॥

बस, विश्वपति में नित्य सबकी वृत्तियाँ हैं लग रही, 

अन्त:करण में ज्ञान-मणि की ज्योतियाँ हैं जग रही। 

कर्तव्य का ही ध्यान उनको है सदा व्यवहार में, 

वे 'पद्मपत्रमिवाम्भसा' रहते सुखी संसार में ॥१८६।।

89
रचनाएँ
भारत-भारती
0.0
भारत भारती, मैथिलीशरण गुप्तजी की प्रसिद्ध काव्यकृति है जो १९१२-१३ में लिखी गई थी। यह स्वदेश-प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है। भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति "भारत-भारती" निश्चित रूप से किसी शोध कार्य से कम नहीं है।
1

मंगलाचरण

14 अप्रैल 2022
2
0
0

मानस भवन में आर्य्जन जिसकी उतारें आरती भगवान् ! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।  हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भवगते ! सीतापते। सीतापते !! गीतामते! गीतामते !!॥१॥ 

2

उपक्रमणिका

14 अप्रैल 2022
2
0
0

हाँ, लेखनी ! हृत्पत्र पर लिखनी तुझे है यह कथा,  दृक्कालिमा में डूबकर तैयार होकर सर्वथा।  स्वच्छन्दता से कर तुझे करने पड़ें प्रस्ताव जो,  जग जायें तेरी नोंक से सोये हुए हों भाव जो॥।२॥ संसार में क

3

भारतवर्ष की श्रेष्ठता

14 अप्रैल 2022
3
0
0

भू-लोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ ? फैला मनोहर गिरी हिमालय और गंगाजल जहाँ । सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है, उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन ? भारत वर्ष है॥१५॥ हाँ, वृद्ध

4

हमारा उद्भव

14 अप्रैल 2022
2
1
0

शुभ शान्तिमय शोभा जहाँ भव-बन्धनों को खोलती, हिल-मिल मृगों से खेल करती सिंहनी थी डोलती! स्वर्गीय भावों से भरे ऋषि होम करते थे जहाँ, उन ऋषिगणों से ही हमारा था हुआ उद्भव यहाँ॥१८॥

5

हमारे पूर्वज

14 अप्रैल 2022
5
0
0

उन पूर्वजों की कीर्ति का वर्णन अतीव अपार है, गाते नहीं उनके हमीं गुण गा रहा संसार है । वे धर्म पर करते निछावर तृण-समान शरीर थे, उनसे वही गम्भीर थे, वरवीर थे, ध्रुव धीर थे॥१९॥ उनके अलौकिक दर्शनों

6

आदर्श

14 अप्रैल 2022
2
0
0

आदर्श जन संसार में इतने कहाँ पर हैं हुए ? सत्कार्य्य-भूषण आर्य्यगण जितने यहाँ पर हैं हुए । हैं रह गये यद्यपि हमारे गीत आज रहे सहे । पर दूसरों के भी वचन साक्षी हमारे हो रहे॥३०॥ गौतम, वशिष्ट-ममान

7

आर्य-स्त्रियाँ

14 अप्रैल 2022
1
0
0

केवल पुरुष ही थे न वे जिनका जगत को गर्व था, गृह-देवियाँ भी थीं हमारी देवियाँ ही सर्वथा । था अत्रि-अनुसूया-सदृश गार्हस्थ्य दुर्लभ स्वर्ग में, दाम्पत्य में वह सौख्य था जो सौख्य था अपवर्ग में॥३९॥ न

8

हमारी सभ्यता

14 अप्रैल 2022
1
0
0

शैशव-दशा में देश प्राय: जिस समय सब व्याप्त थे, निःशेष विषयों में तभी हम प्रौढ़ता को प्राप्त थे । संसार को पहले हमीं ने ज्ञान-भिक्षा दान की, आचार की, व्यवहार की, व्यापार की, विज्ञान की॥४५॥ 'हाँ' औ

9

हमारी विद्या-बुद्धि

14 अप्रैल 2022
1
0
0

पाण्डित्य का इस देश में सब ओर पूर्ण विकास था, बस, दुर्गुणों के ग्रहण में ही अज्ञता का वास था। सब लोग तत्त्व-ज्ञान में संलग्न रहते थे यहाँ हां, व्याध भी वेदान्त के सिद्धान्त कहते थे यहाँ ! ॥७५॥ ज

10

हमारा साहित्य

14 अप्रैल 2022
1
0
0

साहित्य का विस्तार अब भी है हमारा कम नहीं; प्राचीन किन्तु नवीनता में अन्य उसके सम नहीं। इस क्षेत्र से ही विश्व के साहित्य-उपवन हैं बने ; इसको उजाड़ा काल ने आघात कर यद्यपि घने ॥८३॥ वेद फैला यहीं

11

इतिहास

14 अप्रैल 2022
1
0
0

संसार भर के ग्रन्थ-गिरि पर चित्त से पहले चढ़ो,  उपरान्त रामायण तथा गीता-ग्रथित भारत पढ़ो। कोई बता दो फिर हमें, ध्वनि सुन पड़ी ऐसी कहाँ ?  हे हरि ! सुनें केवल यही ध्वनि अन्त में हम हों जहाँ ॥१०५॥

12

कला-कौशल

14 अप्रैल 2022
0
0
0

अब लुप्त-सी जो हो गई रक्षित न रहने से यहाँ,  सोचो तनिक, कौशल्य की इतनी कलाएँ थीं कहाँ?  लिपि-बद्ध चौंसठ नाम उनके आज भी हैं दीखते,  दस-चार विद्या-विज्ञ होकर हम जिन्हें थे सीखते ॥१०७॥  शिल्प  हाँ

13

हमारी वीरता

14 अप्रैल 2022
0
0
0

थे कर्मवीर कि मृत्यु का भी ध्यान कुछ धरते न थे,  थे युद्धवीर कि काल से भी हम कभी डरते न थे।  थे दानवीर कि देह का भी लोभ हम करते न थे,  थे धर्मवीर कि प्राण के भी मोह पर मरते न थे ॥१२३॥ वे सूर्यवं

14

शक्ति का उपयोग

14 अप्रैल 2022
0
0
0

अन्याय-अत्याचार करना तो किसी पर दूर है,  जिसका किया हमने किया उपकार ही भरपूर है ।  पर पीड़ितों का त्राण कर जो दुःख हम खोते नहीं तो आज हिन्दुस्तान में ये पारसी होते नहीं ॥१३६॥ जाकर कहाँ हमने जलाई

15

राजत्व और शासन

14 अप्रैल 2022
0
0
0

हम भूप होकर भी कभी होते न भोगाऽसक्त थे,  रह कर विरक्त विदेह जैसे आत्मयोगाऽसक्त थे ।  कर्तव्य के अनुरोध से ही कार्य करते थे सभी,  राजत्व में भी फिर भला हम भूल सकते थे कभी ? ॥१३९॥  हाँ मेदिनी-पति

16

प्राचीन भारत की एक झलक

14 अप्रैल 2022
0
0
0

समयावरण से पार करके ऐतिहासिक दृष्टि को,  जो देखते हैं आज भी हम पूर्वकालिक सृष्टि को ।  तो दीखता है दृश्य ऐसा भारतीय-विकास का, प्रतिविम्ब एक सजीव है जो स्वर्ग या आकाश का ॥१४३॥  भारतभूमि ब्राह्मी

17

विचार

14 अप्रैल 2022
0
0
0

वह भद्र भारत सर्वदा भू-लोक-नेता सिद्ध है,  संसार में सबसे अधिक स्वाधीन-चेता सिद्ध है।  उन्मादिनी माया स्वयं उसको भुला पाती नहीं,  पुनरागमन की बन्धता भी है उसे भाती नहीं ॥१८७॥ है लक्ष्य केवल मुक्

18

महत्ता

14 अप्रैल 2022
0
0
0

जो पूर्व में हमको अशिक्षित या असभ्य बता रहे वे लोग या तो अज्ञ हैं या पक्षपात जता रहे।  यदि हम अशिक्षित थे, कहें तो, सभ्य वे कैसे हुए?  वे आप ऐसे भी नहीं थे, आज हम जैसे हुए ॥१८९॥  ज्यों ज्यों प्र

19

अवनति का आरम्भ

14 अप्रैल 2022
0
0
0

इस भाँति जब जग में हमारी पूर्ण उन्नति हो चुकी,  पाया जहाँ तक पथ वहाँ तक प्रगति की गति हो चुकी।  तब और क्या होता? हमारे चक्र नीचे को फिरे,  जैसे उठे थे, अन्त में हम ठीक वैसे ही गिरे ! ॥१९५॥ उत्था

20

महाभारत

14 अप्रैल 2022
3
1
0

क्या देर लगती है बिगड़ते, जब बिगड़ने पर हुए।  फिर क्या, परस्पर बन्धु ही तैयार लड़ने पर हुए ! आखिर महाभारत-समर का साज सज ही तो गया,  डंका हमारे नाश का बेरोक बज ही तो गया !॥१९९॥  हाँ सोचनीय, परन्त

21

अनार्यों का आक्रमण

14 अप्रैल 2022
0
0
0

इस भाँति जब बलहीन होकर देश ऊजड़ हो गया,  फिर वह हुआ जिससे कि अब सर्वस्व अपना खो गया।  घुसकर शकादि अनार्य-गण निर्भय यहाँ बढ़ने लगे,  निःशक्त देख, श्रृगाल घायल सिंह पर चढ़ने लगे ॥२०२॥

22

अवतार

15 अप्रैल 2022
0
0
0

हिंसा बढ़ी ऐसी कि मानव दानवों से बढ़ गये; .  भू से न भार सहा गया, अविचार ऊपर चढ़ गये।  सहसा हमारा यह पतन देखा न प्रभु से भी गया,  तब शाक्य मुनि के रूप में प्रकटी दयामय की दया ॥२०३॥

23

बौद्ध काल

15 अप्रैल 2022
0
0
0

भारत-गगन में उस समय फिर एक वह झण्डा उड़ा जिसके तले, आनन्द से, आधा जगत आकर जुड़ा ।  वह बौद्धकालिक सभ्यता है विश्व भर में छा रही,  अब भी जिसे अवलोकने को भूमि खोदी जा रही ! ।। २०४।।  वर्णन विदेशी य

24

अशोक और गुप्तवंश

15 अप्रैल 2022
0
0
0

था सार्वभौम अशोक का कैसा ताप बढ़ा चढ़ा, विस्तार जिसके राज्य का था अन्य देशों तक बढ़ा । थे गुप्तवंशी नृप, न धर्म-द्वेष जिनको इष्ट था; तात्पर्य्य , तब भी भूमि पर भारत बहुत उत्कृष्ट था ।।२०७।।

25

जैनमत

15 अप्रैल 2022
0
0
0

प्रकटित हुई थी बुद्ध विभु के चित्त में जो भावना पर-रूप में अन्यत्र भी प्रकटी वही प्रस्तावना । फैला अहिंसा-बुद्धि-वर्द्धक जैन-पन्थ-समाज भी, जिसके विपुल साहित्य की विस्तीर्णता हैआज भी ।।२०८।। श्रु

26

मतभेद

15 अप्रैल 2022
0
0
0

इस भाँति भारतवर्ष ने गौरव दिखाया फिर नया, पर हाय ! वैदिक-धर्म-रवि था बौद्ध-घन से घिर गया। जैनादिकों से भी परस्पर भेद बढ़ता ही गया, उस फूट के फल की प्रबल विष और चढ़ता ही गया ! ।।२१०।।

27

हिन्दू धर्म

15 अप्रैल 2022
0
0
0

ऐसे विरोधी काल में भी जो कि सब विध वाम था अक्षुण्ण रहना एक हिन्दू धर्म का ही काम था।  अथवा किसी के मेटने से सत्य मिट सकता कहीं?  घन घेर लें पर सूर्य का अस्तित्व खो सकता नहीं ॥२११॥

28

हिन्दू

15 अप्रैल 2022
0
0
0

इस काल में भी हिन्दुओं में धीरता कुछ शेष थी।  निज पूर्वजों की वीरता, गम्भीरता कुछ शेष थी।  फैली विशेष विलासिता थी किन्तु थी कुछ भक्ति भी,  हम घट चले थे किन्तु फिर भी शेष थी कुछ शक्ति भी ॥२१२॥

29

विक्रमादित्य

15 अप्रैल 2022
1
0
0

विक्रम कि जिनका आज भी संवत् यहाँ है चल रहा ध्रुव-धर्म को ऐसे नृपों का उस समय भी बल रहा।  जिनसे अनेकों देश-हित कर पुण्य कार्य किये गये,  जो शक यहाँ शासक बने थे सब निकाल दिये गये ॥२१३॥ नर-रूप-रत्न

30

भोज

15 अप्रैल 2022
0
0
0

विद्यानुरागी भोज भी कैसा सदाशय भूप था विख्यात कवियों के लिए जो कल्पवृक्ष-स्वरूप था।  साहित्य के उद्यान में वह पुण्यकाल वसन्त है,  वे वे प्रसून खिले कि अब भी सुरभि-पूर्ण दिगन्त है ॥२१५॥

31

विकास में ह्रास

15 अप्रैल 2022
0
0
0

पर ठीक वैसा ही हमारा यह प्रसिद्ध विकास है जैसा कि बुझने के प्रथम बढ़ता प्रदीप-प्रकाश है।  हो बौद्ध लक्ष्य-भ्रष्ट सहसा घोर नास्तिक ही रहे,  सँभले न फिर हम आर्य भी, इस भाँति विषयों में बहे ॥२१६॥ 

32

विकास में ह्रास

15 अप्रैल 2022
0
0
0

पर ठीक वैसा ही हमारा यह प्रसिद्ध विकास है जैसा कि बुझने के प्रथम बढ़ता प्रदीप-प्रकाश है।  हो बौद्ध लक्ष्य-भ्रष्ट सहसा घोर नास्तिक ही रहे,  सँभले न फिर हम आर्य भी, इस भाँति विषयों में बहे ॥२१६॥ 

33

मुसलमानों का प्रवेश

15 अप्रैल 2022
0
0
0

देखी न होगी ऐक्य की ऐसी किसी ने छिन्नता, बढ़ कर महा मत-भिन्नता फैली भयङ्कर खिन्नता ।। आखिर, अहले इसलाम-दल को हम बुला कर ही रहे, स्वातन्त्र्य को, मानों सदा को, हम सुला कर ही रहे ।।२२१।।

34

जयचन्द्र और पृथ्वीराज

15 अप्रैल 2022
0
0
0

 क्या थे यवन, पारों ने प्रश्रय यदि अधम जयचन्द से ? जयशील पृथ्वीराज हारे अन्त में छल-छन्द से । हा ! देश का दीपक बुझा, भीषण अँधेरा छा गया; निज कर्म्म के फल-भोग का वह काल आगे आ गया ।।२२२।। क्या पा

35

यवनराजत्व

15 अप्रैल 2022
0
0
0

जो हम कभी फूले-फले थे राम-राज्य-वसन्त में,  हा ! देखनी हमको पड़ी औरङ्गजेबी अन्त में ! है कर्म्म का ही दोष अथवा सब समय की बात है,  होता कभी दिन है, कभी होती अँधेरी रात है ।।२२४।।  है विश्व में सब

36

अत्याचार

15 अप्रैल 2022
0
0
0

जो हो, हमारी दुर्दशा का और अन्त नहीं रहा, हा ! क्या कहें; कितना हमारा रक्त पानी-सा बहा ! हो कर सनुज, कृमि-कीट से भी तुल्य हम लेखे गये; दृष्टान्त ऐसे बहुत ही कम विश्व में देखे गये ।।२२६।। रहते यव

37

प्रशंसा

15 अप्रैल 2022
0
0
0

इससे न यह समझो कि यों ही वह समय बीता सभी, ऐसा नहीं है, उन दिनों भी था सु-काल कभी कभी । निज शत्रु तक के गुण हमें कहना उचित है सब कहीं, सच के छिपाने के बराबर पाप कोई है नहीं ।। २३० ।। ऐसा नहीं होत

38

अकबर

15 अप्रैल 2022
0
0
0

कम कीर्ति अकबर की नहीं सत्शासकों की ख्याति में, शासक ने उसके सम सभी होंगे किसी भी जाति में । हों हिन्दुओं के अर्थ हिन्दु, यवन यवनों के लिये, हठ, पक्षपात तथा दुराग्रह दूर उसने थे किये ।। २३२ ।। न

39

भाषा और कवि

15 अप्रैल 2022
0
0
0

उस काल भाषा भी हमारी उच्च पद पाती रही, हाँ, फारसी-फरमान तक पर वह लिखी जाती रही । श्री सूर, तुलसी, देव, केशव, कवि विहारी-सम हुए,  जिनके अतुल ग्रंथाकरों से भाव-रत्नोद्गम हुए ॥२३४॥

40

औरंगज़ेब

15 अप्रैल 2022
0
0
0

यदि पूर्वजों की नीति को औरंगज़ेब न भूलता होती यवन राजत्व पर विधि की न यों प्रतिकूलता।  गो-वध मिटाने को कहाँ वह पूर्वजों की घोषणा सोचो, कहाँ यह हिन्दुओं के धर्म-धन की शोषणा ॥२३५॥  अन्याय ऐसे, पुरु

41

आत्माभिमान

15 अप्रैल 2022
0
0
0

निश्चय यवन राजत्व में ही हम पतित थे हो चुके, बल और वैभव आदि अपना थे सभी कुछ खो चुके । पर यह दिखाने को कि भारत पूर्व में ऐसा न था, आत्मावलम्बी भी हुए कुछ लोग हममें सर्वथा ।। २३७ ।। 

42

महाराना प्रतापसिंह

15 अप्रैल 2022
0
0
0

राना प्रताप-समान तब भी शूरवीर यहाँ हुए, स्वाधीनता के भक्त ऐसे श्रेष्ठ और कहाँ हुए ? सुख मान कर बरसों भयङ्कर सर्व दुःखों को सहा, पर व्रत न छोड़ा, शाह को बस तुर्क ही मुख से कहा ।।२३८।।

43

जौहर

15 अप्रैल 2022
0
0
0

चितौर चम्पक ही रहा यद्यपि यवन अलि हो गये, धर्म्मार्थ हल्दीघाट में कितने सुभट बलि हो गये । “कुल-मान जब तक प्राण तब तक, यह नहीं तो वह नहीं,”  मेवाड़ भर में वक्तृताएँ गूंजती ऐसी रहीं !! ।। २३९ ।। व

44

शिवाजी

15 अप्रैल 2022
0
0
0

फिर भी दिखाई देश में जिसने महाराष्ट्रच्छटा- दुर्दान्त आलमगीर का भी गर्व जिससे था घटा।  उस छत्रपति शिवराज का है नाम ही लेना अलम्,  है सिंह परिचय के लिए बस 'सिंह' कह देना अलम् ॥२४१॥

45

यवन राजत्व का अन्त

15 अप्रैल 2022
0
0
0

दौरात्म्य यवनों का यहाँ जब बढ़ गया अत्यन्त ही,  सँभले न, उनका भी हुआ बस अन्त में फिर अन्त ही।  था द्वार जो निज नाश का औरंगजेब बना गया, खुलकर पलासी में दिखाया दृश्य ही उसने नया ! ॥२४२॥

46

ब्रिटिश राज्य

15 अप्रैल 2022
0
0
0

अन्यायियों का राज्य भी क्या अचल रह सकता कभी?  आखिर हुए अँगरेज शासक, राज्य है जिनका अभी।  सम्प्रति समुन्नति की सभी हैं प्राप्त सुविधाएँ यहाँ,  सब पथ खुले हैं, भय नहीं विचरो जहाँ चाहो वहाँ ॥२४३।।

47

हमारी दशा

15 अप्रैल 2022
0
0
0

पर हाय ! अब भी तो नहीं निद्रा हमारी टूटती,  कैसी कुटेवें हैं कि जो अब भी नहीं हैं छूटती ।। बेसुध अभी तक हैं, न जाने कौन ऐसा रस पिया ? देखा बहुत कुछ किन्तु हमने सब बिना देखा किया ! ।।२४८।। हैं घट

48

दुर्भिक्ष

15 अप्रैल 2022
0
0
0

दुर्भिक्ष मानों देह धर के घूमता सब ओर है, हा ! अन्न ! हा ! हा ! अन्न का रव गूंजता घनघोर है ? सब विश्व में सौ वर्ष में, रण में मरे जितने हरे ! जन चौगुने उनसे यहाँ दस वर्ष में भूखों मरे !! ॥११॥ उड

49

कृषि और कृषक

15 अप्रैल 2022
0
0
0

अब पूर्व की-सी अन्न की होती नहीं उत्पत्ति है,  पर क्या इसीसे अब हमारी घट रही सम्पत्ति है ? यदि अन्य देशों को यहाँ से अन्न जाना बन्द हो- तो देश फिर सम्पन्न हो, क्रन्दन रुके, अनन्द ही ॥ २८ ॥ वह उर

50

गो वध

15 अप्रैल 2022
0
0
0

है कृषि-प्रधान प्रसिद्ध मारत और कृषि की यह दशा ! होकर रसा यह नीरसा अब हो गई है कर्कशा । अच्छी उपज होती नहीं है, भूमि बहु परती पड़ी; गो-वंश का वध ही यहाँ है याद आता हर घड़ी ! ॥ ५९ ॥ यूरोप में कल

51

व्याधियाँ

15 अप्रैल 2022
0
0
0

बेमौत अपने आप यों ही हम अभागे मर रहे,  हा ! प्लेग जैसे रोग तिस पर हैं चढ़ाई कर रहे।  उच्छिन्न होकर अर्द्धमृत-सा छटपटाता देश है ;  सब ओर क्रन्दन हो रहा है ; क्लेश को भी क्लेश है ॥७७॥ गौरांगगण भी

52

रईस

15 अप्रैल 2022
0
0
0

है दीन, पर क्या देश की ऐसी अवस्था भी नहीं आवश्यकीय पदार्थ जो बनने लगे क्रम से यहीं? कल-कारखाने खोल दें ऐसे धनी भी हैं हमी,  पर कौन झगड़े में पड़े, हमको भला है क्या कमी ॥१०६।। तुम मर रहे हो तो मर

53

अविद्या

15 अप्रैल 2022
0
0
0

ये सब अ-शिक्षा के कुफल हैं, बास है जिसका यहाँ; अध्यात्म विद्या का भवन हा ! आज वह भारत कहाँ ?  धिक्कार है, हम खो चुके हैं आज अपना ज्ञान भी;  खोकर सभी कुछ अन्त में खोया महाधन मान्य भी ! ॥१३३॥ हा !

54

शिक्षा की अवस्था

15 अप्रैल 2022
0
0
0

 हा ! आज शिक्षा-मार्ग भी सङ्कीर्ण होकर क्लिष्ट है,  कुलपति-सहित उन गुरुकुलों का ध्यान ही अवशिष्ट है।  बिकने लगी विद्या यहाँ अब, शक्ति हो तो क्रय करो,  यदि शुल्क आदि न दे सको तो मूर्ख रह कर ही मरो!॥

55

साहित्य

15 अप्रैल 2022
0
0
0

उस साम्प्रतिक साहित्य पर भी ध्यान देना चाहिए,  उसकी अवस्था भी हमें कुछ जान लेना चाहिए।  मृत हो कि जीवित, जाति का साहित्य जीवन-चित्र है,  वह भ्रष्ट है तो सिद्ध फिर वह जाति भी अपवित्र है॥१५७॥ जिस

56

कविता

15 अप्रैल 2022
0
0
0

उद्देश कविता का प्रमुख शृङ्गार रस ही हो गया,  उन्मत्त होकर मन हमारा अब उसी में खो गया !  कवि-कर्म कामुकता बढ़ाना रह गया देखो जहाँ,  वह वीर रस भी स्मर-समर में हो गया परिणत यहाँ ॥१६१॥  सोचा, हमारे

57

उपन्यास

15 अप्रैल 2022
0
0
0

है और औपन्यासिकों का एक नृतन दल यहाँ,  फैला रहा है जो निरन्तर और भी हलचल यहाँ!  दौरात्म्य ही अब लोक-रुचि पर हो रहा है सब कहीं, हा स्वार्थ ! तेरी जय, अरे, तू क्या करा सकता नहीं? ॥१६३॥ ये रुचि-विघ

58

पत्र

15 अप्रैल 2022
0
0
0

हैं पत्र भी प्रायः परस्पर द्वेष-भाव न छोड़ते,  दलबन्दियाँ करते हुए जी के फफोले फोड़ते।  बीड़ा लिये जो देश-हित का पथ हमें दिखला रहे- हठ, पक्षपात तथा हमें कुत्सा वही सिखला रहे !॥ १६९॥

59

सङ्गीत

15 अप्रैल 2022
0
0
0

है पण्डितों की राय यह- "सङ्गीत भी साहित्य है,"  श्रुति-मार्ग से मन को सुधा-रस वह पिलाता नित्य है।  विष किन्तु उसमें भी यहाँ हमने मिला कर रख दिया,  हतभाग्य घुल घुल कर मरा जिसने कि यह रस चख लिया ॥१७०

60

सभाएँ

15 अप्रैल 2022
0
0
0

दिनदिन सभाएँ भी भयङ्कर भेद-भाव बढ़ा रहीं,  प्रस्ताव करके ही हमें कर्तव्य-पाठ पढ़ा रहीं। पारस्परिक रण-रङ्ग से अवकाश उनको है कहाँ ?  “मत-भिन्नता' का 'शत्रुता' ही अर्थ कर लीजे यहाँ ! ॥१७५ ।। चन्दे

61

उपदेशक

15 अप्रैल 2022
0
0
0

सम्मान्य बनने को यहाँ वक्तृत्व अच्छी युक्ति है,  अगुआ हमारा है वही जिसके गले में उक्ति है।  उपदेशकों में आज कितने लोग ऐसे हैं, कहें,  उपदेश के अनुसार जो वे आप भी चलते रहें ? ॥ १७७॥ उनकी गल-ध्वनि

62

धर्म की दशा

15 अप्रैल 2022
0
0
0

था धर्म्म-प्राण प्रसिद्ध भारत, बन रहा अब भी वही;  पर प्राण के बदले गले में आज धार्मिकता रहा !  धर्मोपदेश सभा-भवन की भित्ति में टकरा रहा,  आडम्बरों को देख कर आकाश भी चकरा रहा ! ॥१८०॥ बस कागज़ी घु

63

मन्दिर और महन्त

15 अप्रैल 2022
0
0
0

कैसी भयङ्कर अब हमारी तीर्थ-यात्रा हो रही,  उन मन्दिरों में ही विकृति की पूर्ण मात्रा हो रही!  अड्डे-अखाड़े बन रहे हैं ईश के आवास भी,  आती नहीं है लोक-लजा अब हमारे पास भी ।। १९४ ॥  हा ! पुण्य के

64

तीर्थ और तीर्थ-पण्डे

15 अप्रैल 2022
0
0
0

आरम्भ से ही जो हमारे मुख्य धर्म-क्षेत्र हैं अब देख कर उनकी दशा आँसू बहाते नेत्र हैं।  हा ! गूढ़ तत्त्वों का पता ऋषि-मुनि लगाते थे जहाँ सबसे अधिक अविचार का विस्तार है सम्प्रति वहाँ ॥१९०।।  वे तो

65

साधु-सन्त

15 अप्रैल 2022
0
0
0

वे भूरि संख्यक साधु जिनके पन्थ-भेद अनन्त हैं- अवधूत, यति, नागा, उदासी, सन्त और महन्त हैं। हा! वे गृहस्थों से अधिक हैं आज रागी दीखते, अत्यल्प हो सच्चे विरागी और त्यागी दीखते॥१९७ ॥ जो कामिनी-काश्च

66

ब्राह्मण

15 अप्रैल 2022
0
0
0

उन अग्रजन्मा ब्राह्मणों की हीनता तो देख लो,  भू-देव थे जो आज उनकी दीनता तो देख लो, थे ब्रह्म-मूर्ति यथार्थ जो अब मुग्ध जड़ता पर हुए,  जो पीर थे देखा, वही भिश्ती, बबर्ची, खर हुए !!! ।। २०१ ।।  वह

67

क्षत्रिय

15 अप्रैल 2022
0
0
0

है ब्राह्मणों की यह दशा अब क्षत्रियों को लीजिए,  उनके पतन का भी भयंकर चित्र-दर्शन कीजिए।  अविवेक तिमिराच्छन्न अब वे अंध जैसे हो रहे,  हा! सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी वीर कैसे हो रहे? ॥२०८।।  विश्वेश क

68

वैश्य

15 अप्रैल 2022
0
0
0

जो ईश के ऊरुज अत: जिन पर स्वदेश-स्थिति रही?  व्यापार, कृषि, गो-रूप में दुहते रहे जो सब मही।  वे वैश्य भी अब पतित होकर नीच पद पाने लगे- बनिये कहाकर वैश्य से 'बक्काल' कहलाने लगे ॥२१६।। वह लिपि कि

69

शूद्र

15 अप्रैल 2022
0
0
0

जब मुख्य-वर्ण द्विजातियों का हाल ऐसा है यहाँ,  तब क्या कहें, उस शूद्र-कुल का हाल कैसा है यहाँ ?  देखो जहाँ हा! अब भयंकर तिमिर-पूरित गर्त है,  यह दीन देश अध:पतन का बन गया आनर्त है ॥२२६॥

70

सन्तान

15 अप्रैल 2022
0
0
0

सन्तान कैसी है हमारी, सो हमी से जान लो,  मुख देखकर ही बुद्धि से मन को स्वयं पहचान लो।  बस बीज के अनुरूप ही अंकुर प्रकट होते सदा,  हम रख सके रक्षित न हा! सन्तान-सी भी सम्पदा ! ॥२४१॥ हैं आप बच्चे

71

समाज

15 अप्रैल 2022
0
0
0

हिन्दू समाज कुरीतियों का केन्द्र जा सकता कहा,  ध्रुव धर्म-पथ में कु-प्रथा का जाल-सा है बिछ रहा। सु-विचार के साम्राज्य में कु-विचार की अब क्रान्ति है, सर्वत्र पद पद पर हमारी प्रकट होती भ्रान्ति है ।

72

अन्ध-परम्परा

15 अप्रैल 2022
0
0
0

सब अंग दूषित हो चुके हैं अब समाज-शरीर के,  संसार में कहला रहे हैं हम फकीर लकीर के !  क्या बाप-दादों के समय की रीतियाँ हम तोड़ दें?  वे रुग्ण हों तो क्यों न हम भी स्वस्थ रहना छोड़ दें ! ॥२५०।। 

73

वर-कन्या-विक्रय

15 अप्रैल 2022
0
0
0

बिकता कहीं वर है यहाँ, बिकती तथा कन्या कहीं,  क्या अर्थ के आगे हमें अब इष्ट आत्मा भी नहीं !  हा ! अर्थ, तेरे अर्थ हम करते अनेक अनर्थ हैं- धिक्कार, फिर भी तो नहीं सम्पन्न और समर्थ हैं? ॥२५१|| क्य

74

धनोपार्जन

15 अप्रैल 2022
0
0
0

हैं धन कमाने के हमारे और ही साधन यहाँ,  होंगे कमाऊ और उद्यमशील ऐसे जन कहाँ ?  हमको बुराई कुछ नहीं कोई कहे जो ठग हमें,  अत्यन्त हीन-चरित्र अब तो जानता है जग हमें ॥२५३॥  निज स्वत्व, पर-सम्पत्ति पर

75

अधिकार

15 अप्रैल 2022
0
0
0

इम योग भी पाकर उसे उपयोग में लाते नहीं, सामर्थ्य पाकर भी किसी को लाभ पहुँचाते नहीं ? जैसे बुने हम दूसरों की हानि ही करते सदा, अधिकार पाकर और भी अघ के घड़े भरते सदा ! ।। २६३ ।। न्यायालयों में भी

76

अभियोग

15 अप्रैल 2022
0
0
0

हा ! हिंस्र पशुओं के सदृश हममें भरी हैं क्रूरता, करके कलह अब हम इसी में समझते हैं शूरता । खोजो हमें यदि जब कि हम घर में न सोते हों पड़े होंगे वकीलों के अड़े अथवा अदालत में खड़े ! ।। २६५ ।। न्याय

77

विपथ

15 अप्रैल 2022
0
0
0

देखो जहाँ विपरीत पथ ही हाय ! हमने है लिया, श्रीराम के रहते हुए आदर्श रावण को किया ! हम हैं सुयोधन के अनुग तजकर युधिष्ठिर को अहो !  सोचो भला, तब फिर हमारा पतन दिन दिन क्यों न हो ॥२६७||

78

नशेबाज़ी

15 अप्रैल 2022
0
0
0

हम मत्त हैं, हम पर चढ़ा कितने नशों का रंग है चंडू, चरस, गाँजा, मदक, अहिफेन, मदिरा, भंग है।  सुन लो जरा हममें यहाँ कैसी कहावत है चली “पीता न गाँजे की कली उस मर्द से औरत भली!" ॥२६८॥  क्या मर्द हैं

79

आत्म-विस्मृति

15 अप्रैल 2022
0
0
0

हम आज क्या से क्या हुए, भूले हुए हैं हम इसे;  है ध्यान अपने मान का हममें बताओ अब किसे?  पूर्वज हमारे कौन थे, हमको नहीं यह ज्ञान भी,  है भार उनके नाम पर दो अंजली जल-दान भी! ॥२७४।। होकर नितान्त पर

80

मात्सर्य्य

15 अप्रैल 2022
0
0
0

अब एक हममें दूसरे को देख सकता है नहीं,  वैरी समझना बन्धु को भी, है समझ ऐसी यहीं!  कुत्ते परस्पर देखकर हैं दूर से ही भूंकते,  पर दूसरे को एक हम कब काटने से चूकते? ॥२७६।। हों एक माँ के सुत कई व्यव

81

अनुदारता

15 अप्रैल 2022
0
0
0

यदि एक अद्भुत बात कोई ज्ञात मुझको हो गई तो हाय ! मेरे साथ ही संसार से वह खो गई । उसको छिपा रक्खूँ न मैं तो कौन पूछेगा मुझे; कितने प्रयोग-प्रदीप इस अनुदारता से हैं बुझे ! ।। २७८ ।।

82

गृह-कलह

15 अप्रैल 2022
0
0
0

इस गृह-कलह के अर्थ भारत-भूमि रणचण्डी बनी,  जीवन अशान्ति-पूर्ण सब के, दीन हो अथवा धनी ! जब यह दशा है गेह की, क्या बात बाहर की कहें ? है कौन सहृदय जन न जिसके अब यहाँ आँसू बहें ? ।।२७९।। उद्दंड उग्

83

व्यभिचार

15 अप्रैल 2022
0
0
0

व्यभिचार ऐसा बढ़ रहा है, देख लो, चाहे जहाँ; जैसा शहर, अनुरूप उसके एक 'चकला' है वहाँ ? जाकर जहाँ हम धर्म्म खोते सदैव सहर्ष हैं, होते पतित, कङ्गाल, रोगी सैकड़ों प्रतिवर्ष हैं ।।२८२।। वह कौन धन है,

84

आडम्बर

15 अप्रैल 2022
0
0
0

यद्यपि उड़ा बैठे कमाई बाप-दादों की सभी, पर ऐंठ वह अपनी भला हम छोड़ सकते हैं कभी ? भूषण विके, ऋण मी बढे, पर धन्य सब कोई कहे; होली जले भीतर न क्यों, बाहर दिवाली ही रहे !!! ।।२८६।। गुण, ज्ञान, गौरव,

85

गुणों की स्थिति

15 अप्रैल 2022
0
0
0

बस भाग्य को ही भावना में रह गया उद्योग है, आजीविका है नौकरी में, इन्द्रियों में भोग है । परतन्त्रता में अभयता, भय राजदण्ड-विधान में, व्यवसाय है वैरिस्टरी चा डाक्टरी दूकान में ! ।।२९२।। है चाटुक

86

दुर्गण

15 अप्रैल 2022
0
0
0

अब है यहाँ क्या ? दम्भ है, दौर्बल्य है, दृढ़-द्रोह है,  आलस्य, ईर्ष्या, द्वेष है, मालिन्य है, मद, मोह है।  है और क्या ? दुर्बल जनों का सब तरह सिर काटना,  पर साथ ही बलवान का है श्वान-सम पग चाटना ॥३०

87

अभाव

15 अप्रैल 2022
0
0
0

कर हैं हमारे किन्तु अब कर्तृत्व हममें है नहीं,  हैं भारतीय परन्तु हम बनते विदेशी सब कहीं !  रखते हृदय हैं किन्तु हम रखते न सहृदयता वहाँ,  हम हैं मनुज पर हाय ! अब मनुजत्व हममें है कहाँ ? ॥३०२॥ मन

88

विकृति

15 अप्रैल 2022
0
0
0

हिन्दू-समाज सभी गुणों से आज कैसा हीन है,  वह क्षीण और मलीन, आलस्य में ही लीन है।  परतन्त्र पद पद पर विपद में पड़ रहा वह दीन है,  जीवन-मरण उसका यहाँ अब एक दैवाधीन है॥३०५॥ हा ! आर्य-सन्तति आज कैसी

89

उद्बोधन

15 अप्रैल 2022
1
0
0

हतभाग्य हिन्द-जाति ! तेरा पर्व-दर्शन है कहाँ ?  वह शील, शुद्धाचार, वैभव देख, अब क्या है यहाँ ?  क्या जान पड़ती वह कथा अब स्वप्न की-सी है नहीं ?  हम हों वहीं, पर पूर्व-दर्शन दृष्टि आते हैं कहीं? ॥१॥

---

किताब पढ़िए