बेमौत अपने आप यों ही हम अभागे मर रहे,
हा ! प्लेग जैसे रोग तिस पर हैं चढ़ाई कर रहे।
उच्छिन्न होकर अर्द्धमृत-सा छटपटाता देश है ;
सब ओर क्रन्दन हो रहा है ; क्लेश को भी क्लेश है ॥७७॥
गौरांगगण भी तो अहो ! थोड़े यहाँ रहते नहीं,
आश्चर्य किन्तु नहीं कि वे दुखदाह से दहते नहीं।
वे स्वस्थ क्यों न रहें, उन्हें कब और कौन अभाव है?
बस, दुःख में ही दुःख होता घाव में ही घाव है ॥७८॥
भारत न ऐसा है कि अब वह और भी दुख सह सके,
इसकी बुरी गति भारती ही कह सके तो कह सके।
कृश हो गया सहसा सरोवर, छटपटाते मीन हैं,
तप-तप्त तरुवर शुष्क हैं, द्विज दीन हैं, गति हीन हैं ॥७९॥
व्यापार
इस रत्नगर्भा भूमि पर हा दैव ! ऐसी दीनता,
है शोच्य कृषि से कम नहीं व्यापार की भी हीनता।
जिस देश के वाणिज्य की सर्वत्र धूम मची रही-
क्या पर-मुखापेक्षी नहीं है आज पद पद पर वही? ॥८०॥
अब रख नहीं सकते स्वयं हम लाज भी अपनी अहो !
रखते विदेशी वस्त्र उसको, सभ्य हैं हम, क्यों न हो !
करती अपेक्षा आप अपनी पूर्ण जो जितनी जहाँ--
वह जाति उतनी ही समुन्नति प्राप्त करती है वहाँ ॥ ८१ ॥
जो वस्तु देखो, “मेडइन' इंगलैंड, इटली, जर्मनी,
जापान, फ्रांस, अमेरिका वा अन्य देशों की बनी ।
होकर सजीव मनुष्य हम निर्जीव-से हैं हो रहे,
घर में लगा कर आग अपने बेखबर हैं सो रहे ! ॥ ८२ ॥
कुल-नारियाँ जिनको हमारी हैं करों में धारतीं -
सौभाग्य का शुभ-चिन्ह जिनके हैं सदैव विचारतीं ।
वे चूड़ियाँ तक हैं विदेशी देखलो, बस हो चुका;
भारत स्वकीय सुहाग भी परकीय करके खो चुका ! ॥ ८३ ॥
वे तुच्छ सुइयाँ भी विदेशी जो न हमको मिल सकें-
तो फिर पहनने के हमारे वस्त्र भी क्या सिल सकें ?
माचिस विदेशी जो न लें तो हम अंधेरे में रहें,
हैं क्षुद्र छड़ियाँ तक विदेशी और आगे क्या कहें ? ॥ ८४ ॥
केवल विदेशी वस्तु ही क्यों, अब स्वदेशी है कहाँ ?
वह वेष-भूषा और भाषा, सब विदेशी है यहाँ !
गुण मात्र छोड़ विदेशियों के हम उन्हीं में सन गये,
कैसी नकल की, वाह ! हम नक़्क़ाल पूरे बन गये ! ॥ ८५॥
गर्दभ बना था सिंह उसकी खाल को पाकर कभी,
पर सिह के-से गुण कहाँ ? हंसने लगे उसको सभी ।
इस भाँति के नरपुङ्गवों की क्या यहाँ बढ़ती नहीं ?
पर हाय ! काले भाल पर लाली कभी चढ़ती नहीं ॥ ८६ ॥
सम्प्रति स्वदेशी की हमें है गन्ध भी भाती नहीं,
खस, केकड़ा, बेला, चमेली चित्त में आती नहीं ।
मस्तक न 'लेवेंडर' बिना अब मस्त होता है अहो !
बस शौक़ पूरा हो हमारा, देश ऊजड़ क्यों न हो ! ॥ ८७ ॥
सब स्वाभिमान डुबा चुकेजो पूर्व-पारावार में-
आश्चर्य है, हम आज भी हैं जी रहे संसार में !
किंवा इसे जीना कहें तो फिर कहें मरना किसे ?
जीता कहाँ है वह नहीं है ध्यान कुछ अपना जिसे ! ॥ ८८ ॥
आती विदेशों से यहाँ सब वस्तुएँ व्यवहार की,
धन-धान्य जाता है यहाँ से, यह दशा व्यापार की ?
कैसे न फैले दीनता, कैसे न हम भूखों मरें ?
ऐसी दशा में देश की भगवान ही रक्षा करें ॥ ८९ ॥
जिस वस्तु को हम दूसरों को बेचते हैं 'एक' में,
लेते उसी को 'बीस' में हैं डूब कर अविवेक में !
जो देश कच्चा माल ही उत्पन्न करके शान्त है,
उसका पतन एकान्त है, सिद्धान्त यह निभ्रांत है ॥ ९० ॥
रालीब्रदर इत्यादि को हम बेचते जो माल हैं,
लेते वही पन्द्रह गुने तक मूल्य में तत्काल हैं !
आता विलायत से यहाँ वह माल नाना रूप में,
आश्चर्य क्या फिर हम पड़े हैं जो अँधेरे कूप में ॥ ९१ ॥
हम दूसरों को पाँच सौ की बेचते हैं जब रुई,
सानन्द कहते हैं कि हमको आय क्या अच्छी हुई ।
पर दूसरे कहते कि ठहरो, वस्त्र जब हम लायँगे --
तब और पैंतालीस लेकर तुम्हीं से जायँगे ॥ ९२ ॥
हा ! आप आगे दौड़ कर हम दीनता को ले रहे,
लेकर खिलौने, काँच आदिक अन्न-धन हैं दे रहे !
आवश्यकीय पदार्थ अपने यदि बनाते हम यहीं ,
तो हानि होकर यों हमारी दुर्दशा होती नहीं ॥ ९३ ॥
लेकर विदेशी टीन हम सानन्द चाँदी दे रहे,
देकर तथा सोना निरन्तर हैं गिलट हम ले रहे ।
इस कांच लेकर दूसरों को दे रहे हीरे खरे,
निज रक्त के बदले मदोदक ले रहे हैं हा हरे ! ॥ ९४ ॥
क्या इस पुरातन देश में था समय ऐसा भी कभी --
अपनी प्रयेाजन-पूर्ती जब करते स्वयं थे हम सभी ?
हाँ, यह न होता तो कभी का नाश हो जाता यहाँ,
इसका अभी तक चिन्ह भी क्या दृष्टि में आता यहाँ ॥९५॥
जो दिव्य दर्शन शास्त्र की विख्यात है जन्मस्थली,
पहले जहाँ पर अंकुरित हो सभ्यता फूली-फली ।
संगीत, कविता, शिल्प की जननी वही भारत मही,
होगी किसे स्पर्धा कहे जो पर-मुखापेक्षी रही ॥ ९६ ॥
इतिहास में इस देश की वाणिज्य-वृद्धि प्रसिद्ध है,
अन्यान्य देशों से वहाँ सम्बन्ध इसका सिद्ध है ।
बन कर यहाँ वर वस्तुएँ सर्वत्र ही जाती रहीं,
नर-रचित कहलाती न थी, सुर-रचित कहलाती रहीं ॥९७॥
हिन्दू-कला-कौशल्य पर संसार मुग्ध बना रहा,
जग में बिना सङ्कोच सबने अद्वितीय उसे कहा ।
'हारुंरशीद' तथा प्रतापी 'शार्लमेंगन' की सभा,
है हो चुकी विस्मित निरख कर भारतीय-पट-प्रभा ॥ ९८ ॥
सब वस्तुएँ उपहार के ही योग्य बनती थीं यहाँ,
संसार में होती उन्हीं की माँग थी देखो जहाँ ।
तब तो अतुल वैभव रहा, त्रुटि थी न कोई आय में;
सच है कि रमती है रमा वाणिज्य में, व्यवसाय में ॥ ९९॥
हैं आज कश्मीरे विदेशी नाम पर जिनके चले,
बनते दुशले हाय ! थे कश्मीर में कैसे भले !
है विदित बङ्गाली किनारी धोतियों की आज भी,
पर है विदेशी आज वह, आती न हमको लाज भी ! ॥ १००॥
ढाके, चंदेरी आदि की कारीगरी अब है कहाँ ?
हा ! आज हिन्दू-नारियों की कुशलता सब है कहाँ ?
थी वह कला या क्या, कि ऐसी सूक्ष्म थी, अनमोल थी,
सौ हाथ लम्बे सूत की बस एक रत्ती तोल थी ॥१०१॥
रक्खा नली में बाँस की जो थान कपड़े का नया,
आश्चर्य ! अम्बारी सहित हाथी उसी से ढक गया।
वे वस्त्र कितने सूक्ष्म थे, कर लो कई जिनकी तहें-
शहजादियों के अंग फिर भी झलकते जिनमें रहें ! ॥१०२॥
थे मुग्ध वस्त्रों पर हमारे अन्य देशी सर्वथा,
यूरोप के ही साहबों की हम सुनाते हैं कथा।
वे लोग वस्त्रों को यहाँ के थे सदैव सराहते,
निज देश के पट मुफ्त में भी थे न लेना चाहते ॥१०३॥
जिस भाँति भारतवर्ष का व्यापार नष्ट किया गया,
कर से तथा प्रतिरोध से जिस भाँति भ्रष्ट किया गया।
वर्णन वृथा है उस विषय का, सोचना अब है यही-
किस भाँति उसकी वृद्धि हो, जैसी कि पहले थी रही ॥१०४॥
यदि हम विदेशी माल से मुँह मोड़ सकते हैं नहीं-
तो हाय ! उसका मोह भी क्या छोड़ सकते हैं नहीं?
क्या बन्धुओं के हित तनिक भी त्याग कर सकते नहीं?
निज देश पर क्या अल्प भी अनुराग कर सकते नहीं? ॥१०५॥