उद्देश कविता का प्रमुख शृङ्गार रस ही हो गया,
उन्मत्त होकर मन हमारा अब उसी में खो गया !
कवि-कर्म कामुकता बढ़ाना रह गया देखो जहाँ,
वह वीर रस भी स्मर-समर में हो गया परिणत यहाँ ॥१६१॥
सोचा, हमारे अर्थ है यह बात कैसे शोक की
श्रीकृष्ण की हम आड़ लेकर हानि करते लोक की।
भगवान को साक्षी बना कर यह अनङ्गोपासना !
है धन्य ऐसे कविवरों को, धन्य उनकी वासना !!॥१६२॥