दुर्भिक्ष मानों देह धर के घूमता सब ओर है,
हा ! अन्न ! हा ! हा ! अन्न का रव गूंजता घनघोर है ?
सब विश्व में सौ वर्ष में, रण में मरे जितने हरे !
जन चौगुने उनसे यहाँ दस वर्ष में भूखों मरे !! ॥११॥
उड़ते प्रभञ्जन से यथा तप-मध्य सूखे पत्र हैं,
लाखों यहाँ भूखे भिखारी घूमते सर्वत्र हैं।
है एक चिथड़ा ही कमर में और खप्पर हाथ में,
नङ्गे तथा रोते हुए बालक विकल हैं साथ में ॥१२॥
आवास या विश्राम उनका एक तरुतल मात्र है,
बहु कष्ट सहने से सदा काला तथा कृश गात्र है !
हेमन्त उनको है कंपाता , तप तपाता है तथा-
है झेलनी पड़ती उन्हें सिर पर विषम वर्षा-व्यथा !॥१३॥
वह पेट उनका पीठ से मिल कर हुआ क्या एक है ?
मानों निकलने को परस्पर हड्ड्यिों में टेक है !
निकले हुए हैं दाँत बाहर, नेत्र भीतर हैं धंसे से;
किन शुष्क आँतों में न जाने प्राण उनके हैं फँसे ! ॥१४॥
अविराम आँखों से बरसता आँसुओं का मेह है,
है लटपटाती चाल उनकी, छटपटाती देह है !
गिर कर कभी उठते यहाँ, उठ कर कभी गिरते वहाँ;
घायल हुए-से घूमते हैं वे अनाथ जहाँ तहाँ ॥१५॥
हैं एक मुट्ठी अन्न को वे द्वार द्वार पुकारते,
कहते हुए कातर वचन सब ओर हाथ पसारते-
“दाता ! तुम्हारी जय रहे, हमको दया कर दीजियो,
माता ! मरे हा ! हा ! हमारी शीघ्र ही सुध लीजियो”॥१६॥
कृमि, कीट, खग, मृग आदि भी भूखे नहीं सोते कभी,
पर वे भिखारी स्वप्न में भी भूख से रोते सभी !
वे सुप्त हैं या मृत कि मूर्च्छित , कुछ समझ पड़ता नहीं;
मूर्च्छा कि मृत्यु अवश्य है, यह नींद की जड़ता नहीं॥१७॥
है काँखता कोई कहीं, कोई कहीं रोता पड़ा;
कोई विलाप-प्रलाप करता, ताप है कैसा कड़ा?
हैं मत्यु-रमणी पर प्रणयि-सम वे अभागे मर रहे,
जब से बुभुक्षा कुट्टनी ने उस प्रिया के गुण कहे !॥१८॥
नारी-जनों की दुर्दशा हमसे कही जाती नहीं,
लज्जा बचाने को अहो ! जो वस्त्र भी पाती नहीं।
जननी पड़ी है और शिशु उसके हृदय पर मुख धरे,
देखा गया है, किन्तु वे मां-पुत्र दोनों हैं मरे ! ॥१९ ॥
जो कूलवती हैं भीख भी वे मांग सकती हैं नहीं,
मर जायें चाहे किन्तु झोली टांग सकती हैं नहीं !
सन्तान ने आकर कहा-'माँ ! रात तो होने लगी,
भूखे रहा जाता नहीं माँ !' सुन जननि रोने लगी॥२०॥
है खोलती सरकार यद्यपि काम शीघ्र अकाल के,
होती सभाएँ, और खुलते सत्र आटे दाल के।
पूरा नहीं पड़ता तदपि, वह त्राहि कम होती नहीं;
कैसी विषमता है कि कुछ भी हाय! सम होती नहीं ॥ २१ ॥
प्रायः सदा दुर्भिक्ष ऐसा है बना रहता जहाँ,
आश्चर्य, क्या यदि फिर निरन्तर नीचता फैले वहाँ ।
करता नहीं क्या पाप भूखा ? पेट हो तेरा बुरा,
हा ! छोड़ती सुत तक नहीं उरगी क्षुधा से आतुरा !॥ २२ ॥
शासक यहाँ जो दोषियों को साँकलों से कस रहे,
जो अण्डमान समान टापू हैं यहाँ से बस रहे।
फिर भी दिनोंदिन बढ़ रहा जो घोर घटना-जाल है,
है हेतु इसका और क्या, दुर्भिक्ष या दुष्काल है ॥ २३ ॥
कुल जाति-पाँति न चाहिए, यह सब रहे या जाय रे,
बस एक मुट्ठी अन्न हमको चाहिए अब हाय रे !
इस पेट पापी के लिए ही हम विधर्मी बन रहे;
निज धर्म-मानस से निकल अघ-पंक में हैं सन रहे ॥ २४ ॥
जिन दूर देशों में हमारे धर्म के झण्डे उड़ें-
आकर स्वयं जिनके तले दिन दिन वहाँ के जन जुड़ें,
तजना पड़े हमको वहीं के धर्म पर निज धर्म को;
हा ! हा ! बुभुक्षा राक्षसी क्या देखती दुष्कर्म को !॥ २५॥
हे धर्म और स्वदेश ! तुमको बार बार प्रणाम है,
हा! हम अभागों का हुआ क्या आज यह परिणाम है !
हमको क्षमा करियो, क्षुधावश हम तुम्हें हैं खो रहे,
होकर विधर्मी हाय ! अब हम हैं विदेशी हो रहे" ॥ २६ ॥
आनन्द-नद में मग्न थे जिस देश के वासी सभी,
सुर भी तरसते थे जहाँ पर जन्म लेने को कभी।
हा! आज उसकी यह दशा, सन्ताप छाया सब कहीं।
सुर क्या, असुर भी अब यहाँ का जन्म चाहेंगे नहीं ॥ २७ ॥