क्या थे यवन, पारों ने प्रश्रय यदि अधम जयचन्द से ?
जयशील पृथ्वीराज हारे अन्त में छल-छन्द से ।
हा ! देश का दीपक बुझा, भीषण अँधेरा छा गया;
निज कर्म्म के फल-भोग का वह काल आगे आ गया ।।२२२।।
क्या पा लिया जयचन्द ने निज देश का हित हार के ?
हैं कह रहें कन्नौज के वे सौध-धुस्स पुकार के
"जर्जर हुए भी आज तक हम इस लिए हैं जी रहे
अब भी सजग हो जायें वे विद्वेष-विष जो पी रहे" ।।२२३।।