है दीन, पर क्या देश की ऐसी अवस्था भी नहीं
आवश्यकीय पदार्थ जो बनने लगे क्रम से यहीं?
कल-कारखाने खोल दें ऐसे धनी भी हैं हमी,
पर कौन झगड़े में पड़े, हमको भला है क्या कमी ॥१०६।।
तुम मर रहे हो तो मरो, तुमसे हमें क्या काम है?
हमको किसी की क्या पड़ी है, नाम है, धन-धाम है।
तुम कौन हो, जिनके लिए हमको यहाँ अवकाश हो ;
सुख भोगते हैं हम, हमें क्या जो किसी का नाश हो ॥१०७॥
राजा-रईसों की यहाँ है आज ऐसी ही दशा,
अन्धा बना देता अहो ! करके बधिर मद का नशा।
बस भोग और विलास ही उनके निकट सब सार है,
संसार में है और जो कुछ वह भयंकर भार है ! ॥१०८॥
दो पैर जो पैदल चले जाता अमीर नहीं गिना,
होती न सैर प्रदर्शिनी की भी यहाँ वाहन बिना ।
इंगलैंड का युवराज तो सीखे कुली का काम भी,
पर काम क्या, आता नहीं लिखना यहाँ निज नाम भी ! ॥१०९॥
"हो आध सेर कबाब मुझको, एक सेर शराब हो,
नूरजहाँ की सल्तनत है, .खूब हो कि खराब हो।"
कहना मुगल-सम्राट का यह ठीक है अब भी यहाँ,
राजा-रईसों को प्रजा की है भला परवा कहाँ ? ॥११०॥
जातीयता क्या वस्तु है, निज देश कहते हैं किसे;
क्या अर्थ आत्म-त्याग का, वे जानते हैं क्या इसे ?
सुख-दुःख जो कुछ है यहीं है, धर्म-कर्म अलीक है।
खाओ-पियो, मौजें करो, खेलो-हँसो, सो ठीक है !||१११॥
क्या सीख कर लिखना उन्हें, बनना मुहरिर है कहीं,
पण्डित पढ़ें, पढ़ कर कहीं उनको कथा कहनी नहीं।
कीड़े-मकोड़ों की तरह हैं काटते अक्षर उन्हें,
है प्रेम उपवर के सदृश अपनी अविद्या पर उन्हें ! ॥११२॥
हैं शत्रु यद्यपि सिद्ध वे श्रीमान विद्या के सदा,
पर कौन गुण उनमें नहीं जिनके यहाँ है सम्पदा ?
हा सम्पदे ! सत्ता तुम्हारी है चराचरगामिनी,
संसार में सारे गुणों की बस तुम्हीं हो स्वामिनी !॥११३||
ऐसा नहीं कि रईस अपने हैं नहीं कुछ जानते,
वे कुछ न जानें किन्तु ये दो तत्त्व हैं पहचानते-
त्रुटि कौन-सी उनकी सभा में है सजावट की पड़ी,
है 'जानकीबाई' कि 'गौहरजान' गाने में बड़ी ! ॥११४॥
दुर्विध प्रजा का द्रव्य हरकर फूंकते हैं व्यर्थ वे,
सत्कार्य करने के लिए हैं संर्वथा असमर्थ वे !
चाहे अपव्यय में उड़ें लाखों-करोड़ों भी अभी,
पर देश-हित में वे न देंगे एक कौड़ी भी कभी !! ॥११५॥
दुर्भिक्ष आदिक दुःख से यदि देश जाता है मरा,
तो हैं प्रसन्न कि धाम उनका अन्न-धन से है भरा।
दुर्भाग्य से यदि देश-भाई आपदा में फँस रहे-
तो नाच-मुजरे में विराजे आप सुख से हँस रहे ॥११६॥
उनकी सभा “इन्दर-सभा” है, इन्द्र उनको लेख लो,
वह पूर्ण परियों का अखाड़ा भाग्य हो तो देख लो।
विख्यात बोतल की दवा क्या है अमृत से कम कभी !
लेखक अधम कैसे लिखे उस स्वर्ग का वर्णन सभी॥११७।।
मन हाथ में उनके नहीं, वे इन्द्रियों के दास हैं,
कल-कण्ठियाँ गुजारती उनके अतुल आवास हैं।
वे नेत्र-बाणों से बिंधे हैं, बाल-व्यालों से डसे,
कैसे बचेंगे वे, विषय के बन्धनों से हैं कसे ॥११८॥
हाँ. नाच, भोग-विलास-हित उनका भरा भाण्डार है,
धिक् धिक् पुकार मृदंग भी देता उन्हें धिक्कार है।
वे जागते हैं रात भर, दिन भर पड़े सोवें न क्यों?
है काम से ही काम उनको, दूसरे रोवें न क्यों ॥११९॥
बस भाँड़, भँडुवे, मसखरे उनकी सभा के रत्न हैं,
करते रिझाने को उन्हें अच्छे-बुरे सब यत्न हैं।
धारा वचन की, कौन जो उनके सुखार्थ न बह उठे?
है कौन उनकी बात पर जो ‘हाँ हुजूर' न कह उठे ? ॥१२०॥
देशी नरेशों को जरा भी ध्यान होता देश का,
होते न विषयाधीन यदि वे त्याग कर उद्देश का,
तो दूसरा ही दृश्य होता आज भारतवर्ष का,
दिन देखना पड़ता हमें क्यों आज यह अपकर्ष का? ॥१२१॥
है अन्य धनियों की दशा भी ठीक ऐसी ही यहाँ,
देखें दशा जो देश की अवकाश है उनको कहाँ ?
रक्खें मितव्यय तो बड़ों में व्यर्थ उनका नाम है,
है इत्र मिल सकता जहाँ तक तेल का क्या काम है ! ॥१२२॥