अब लुप्त-सी जो हो गई रक्षित न रहने से यहाँ,
सोचो तनिक, कौशल्य की इतनी कलाएँ थीं कहाँ?
लिपि-बद्ध चौंसठ नाम उनके आज भी हैं दीखते,
दस-चार विद्या-विज्ञ होकर हम जिन्हें थे सीखते ॥१०७॥
शिल्प
हाँ, शिल्प-विद्या वृद्धि में तो थी यहाँ यों अति हुई-
होकर महाभारत इसी से देश की दुर्गति हुई !
मय-कृत भवन में यदि सुयोधन थल न जल को जानता-
तो पाण्डवों के हास्य पर यों शत्रुता क्यों ठानता? ॥१०८॥
प्रस्तर -विनिर्मित पुर यहाँ थे और दुर्ग बड़े-बड़े,
अब भी हमारे शिल्प-गुण के चिह्न कुछ कुछ हैं खड़े।
भू-गर्भ से जब तब निकलती वस्तुएँ ऐसी यहाँ-
जो पूछ उठती हैं कि ऐसी थी हुई उन्नति कहाँ ? ॥१०९॥
वह सिन्धु-सेतु बचा अभी तक, दक्षिणी मन्दिर बचे,
कब और किसने, विश्व में, यों शिल्प-चित्र कहाँ रचे?
वह उच्च यमुनास्तम्भ लोहस्तम्भ-युक्त निहार लो',
प्राचीन भारत की कला-कौशल्य-सिद्धि विचार लो ॥११०॥
बहु अभ्रभेदी स्तूप अब भी उच्च होकर कह रहे-
संसार के किस शिल्प ने जल-पात इतने हैं सहे?
शत शत गुहाएँ साथ ही गुंजार करके कह रहीं-
प्राचीन ही वा शिल्प इतना कौन है? कोई नहीं ॥१११॥
हैं जो यवन राजत्व के वे कीर्ति-चिह्न बढ़े चढ़े-
वे भी अधिकतर हैं हमारे शिल्पियों के ही गढ़े।
अन्यत्र भी तो है यवन-कुल की विपुल कारीगरी,
है किन्तु भारत के सदृश क्या वह मनोहरता भरी ॥११२॥
चित्रकारी
निज चित्रकारी के विषय में क्या कहें, क्या क्रम रहा;
प्रत्यक्ष है या चित्र है, यों दर्शकों को भ्रम रहा।
इतिहास, काव्य, पुराण, नाटक, ग्रन्थ जितने दीखते ;
सबसे विदित है, चित्र-रचना थे यहाँ सब सीखते ॥११३॥
होती न यदि वह चित्र-विद्या आदि से इस देश में
तो धैर्य धरते किस तरह प्रेमी विरह के क्लेश में?
अब तक मिलेगा सूक्ष्म वर्णन चित्र के प्रति भाग का,
साहिय में भी चित्र-दर्शन हेतु है अनुराग का ॥११४||
थीं चित्रकार यहाँ स्त्रियाँ भी चित्ररेखा-सी कभी,
अंकन कुशल नायक हमारे नाटकों में हैं सभी।
लिखते कहीं दुष्यन्त हैं.भोली प्रिया की छवि भली,
करती कहीं प्रिय-चित्र-रचना प्रेम से रत्नावली ॥११५॥
अब चित्रशालाएँ हमारी नाम-शेष हुई यहाँ,
पर आज भी आदर्श उनके हैं अनेक जहाँ तहाँ।
अब भी अजन्ता की गुफाएँ चित्त को हैं मोहती ;
निज दर्शकों के धन्य रव से गूंज कर हैं सोहती ॥११६॥
मूर्तिनिर्माण
होता न मूर्ति-विधान यदि साधन हमारे देश का
पूजन न षोडश-विधि यहाँ होता सगुण सर्वेश का।
अनुभव न होता एक सीमा में असीमाधार का,
होता निदर्शन भी न उस हृदयस्थ रूपोद्गार का ॥११७॥
निज रूप से भी दूसरे जन जिस समय अज्ञान थे-
हम उस समय प्रभु मूर्ति का प्रत्यक्ष करते ध्यान थे।
ऐसा न करते तो भला हम भक्ति प्रकटाते कहाँ ?
दर्शन-विलम्बाकुल दृगों को हाय ! ले जाते कहाँ? ॥११८॥
अब तक पुराने खंडहरों में, मन्दिरों में भी कहीं,
बहु मूर्तियाँ अपनी कला का पूर्ण परिचय दे रहीं।
प्रकटा रही हैं भग्न भी सौन्दर्य की परिपुष्टता,
दिखला रही हैं साथ ही दुष्कर्मियों की दुष्टता ॥११९॥
संगीत
लोकोक्ति है 'गाना तथा रोना किसे आता नहीं'
पर गान जो शास्त्रीय है उत्पत्ति उसकी है यहीं।
आकर भयंकर भाव जिस संगीत में अब हैं भरे,
हरि को रिझाकर हम उसी से साम गान किया करे ॥१२०॥
आती सु-चेतनता जिन्हें सुनकर जड़ों में भी अहो!
आई कहाँ से गान में वे राग-रागिनियाँ कहो?
हैं सब हमारी ही कलाएँ ललित और मनोहरी,
थी कौतुकों में भी हमारे ऐन्द्रजालिकता भरी ॥१२१॥
अभिनय
अभिनय-कला के सूत्रधर भी आदि से ही आर्य हैं
प्रकटे भरत मुनि-से यहाँ इस शास्त्र के आचार्य हैं।
संसार में अब भी हमारी है अपूर्व शकुन्तला',
है अन्य नाटक कौन उसका साम्य कर सकता भला ॥१२२॥