कैसी भयङ्कर अब हमारी तीर्थ-यात्रा हो रही,
उन मन्दिरों में ही विकृति की पूर्ण मात्रा हो रही!
अड्डे-अखाड़े बन रहे हैं ईश के आवास भी,
आती नहीं है लोक-लजा अब हमारे पास भी ।। १९४ ॥
हा ! पुण्य के भाण्डार में हैं भर रहीं अघ-राशियाँ,
हैं देव आप महन्तजी ही, देवियाँ हैं दासियाँ !
तन, मन तथा धन भक्तजन अर्पण किया करते जहाँ
वे भण्ड साधु सु-कर्म का तर्पण किया करते वहाँ ! !॥१९५।।
अब मन्दिरों में रामजनियों के विना चलता नहीं,
अश्लील गीतों के विना वह भक्ति-फल फलता नहीं।
वे चीरहरणादिक वहाँ प्रत्यक्ष लीला-जाल हैं,
भक्त-स्त्रियाँ है गोपियाँ, गोस्वामि ही गोपाल हैं !!!॥ १९६॥