था धर्म्म-प्राण प्रसिद्ध भारत, बन रहा अब भी वही;
पर प्राण के बदले गले में आज धार्मिकता रहा !
धर्मोपदेश सभा-भवन की भित्ति में टकरा रहा,
आडम्बरों को देख कर आकाश भी चकरा रहा ! ॥१८०॥
बस कागज़ी घुड़दौड़ में है आज इति कर्तव्यता,
भीतर मलिनता ही भले हो किन्तु बाहर भव्यता।
धनवान ही धार्मिक बने यद्यपि अधर्मासक्त हैं,
हैं लाख में दो चार सुहृदय शेष बगुला भक्त हैं !।। १८१ ॥
अनुकूल जो अपने हुए वेही यहाँ सद्ग्रन्थ हैं;
जितने पुरुप अब हैं यहां उतने समझ लो पन्थ हैं।
यों फूट की जड़ जम गई, अज्ञान आकर अड़ गया,
हो छिन्न-भिन्न समाज सारा दीन-दुर्बल पड़ गया॥१८२।।
श्रुति क्यों न हो, प्रतिकूल हैं जो स्थल वही प्रक्षिप्त हैं,
विक्षिप्त से हम दम्भ में आपाद-मस्तक लिप्त हैं!
आक्षेप करना दूसरों पर धर्मनिष्ठा है यहाँ,
पाखण्डियों ही की अधिकतर अब प्रतिष्ठा है यहाँ ! ॥१८३॥
हम आड़ लेकर धर्म को अब लीन हैं विद्रोह में,
मत ही हमारा धर्म्म है, हम पड़ रहे हैं मोह में !
है धर्म बस निःस्वार्थता ही, प्रेम जिसका मूल है;
भूले हुए हैं हम इसे, कैसी हमारी भूल है ? ॥१८४॥
जिसके लिए संसार अपना सर्वकाल ऋणी रहा,
उस धर्म की भी दुर्दशा हमने उठा रक्खी न हा!
जो धर्म सुख का हेतु है, भव-सिन्धु का जो सेतु है,
देखो, उसे हमने बनाया अब कलह का केतु है !! ॥१८५।।
उद्देश है बस एक, यद्यपि पथ अनेक प्रमाण हैं-
रुचि-भिन्नतार्थ किये गये जो ज्ञान से निर्माण हैं।
पर अब पथों को ही यहाँ पर धर्म्म हैं हम मानते !
करके परस्पर घोर निन्दा व्यर्थ ही हठ ठानते ॥१८६।।
प्रभु एक किन्तु असंख्य उसके नाम और चरित्र हैं,
तुम शैव, हम वैष्णव, इसीसे हा अभाग्य ! अमित्र हैं।
तुम ईश को निर्गुण समझते, हम सगुण भी जानते,
हा ! अब इसीसे हम परस्पर शत्रुता हैं मानते ! ॥१८७॥
हिन्दू सनातन धर्म के ऐसे पवित्र विधान हैं-
संसार में सबके लिए जो मान्य एक समान हैं।
धृति, शान्ति, शौच, दया, क्षमा, शम, दम, अहिंसा, सत्यता;
पर हाय ! इनमें से किसी का आज हममें है पता ? ॥ १८८॥
विख्यात हिन्दू धर्म ही सच्चा सनातन धर्म है,
वह धर्म ही धारण क्रिया का नित्य कर्ता-कर्म है ।
परमार्थ की-संसार की भी-सिद्धि का वह धाम है,
पर वाद और विवाद में ही आज उसका नाम है ! ॥१८९ ।।