इस गृह-कलह के अर्थ भारत-भूमि रणचण्डी बनी,
जीवन अशान्ति-पूर्ण सब के, दीन हो अथवा धनी !
जब यह दशा है गेह की, क्या बात बाहर की कहें ?
है कौन सहृदय जन न जिसके अब यहाँ आँसू बहें ? ।।२७९।।
उद्दंड उग्र अनैक्य ने क्षय कर दिया है क्षेम का,
विष ने पद हर लिया है आज पावन प्रेम का।
ईर्ष्या हमारे चित्त से क्षण मात्र भी हटती नहीं,
दो भाइयों में भी परस्पर अब यहाँ पटती नहीं ! ।। २८० ।।
इस गृह-कलह से ही, कि जिसकी नींव है अविचार की-
निन्दित कदाचित् है प्रथा अब सुम्मिलित परिवार की ।
पारस्परिक सौहार्द अपना अन्यथा अश्रान्त था,
हाँ, सु-"वसुधैव कुटुम्बकम", सिद्धान्त यह एकान्त था ।।२८१।।