इससे न यह समझो कि यों ही वह समय बीता सभी,
ऐसा नहीं है, उन दिनों भी था सु-काल कभी कभी ।
निज शत्रु तक के गुण हमें कहना उचित है सब कहीं,
सच के छिपाने के बराबर पाप कोई है नहीं ।। २३० ।।
ऐसा नहीं होता कि सारी जाति कोई क्रूर हो,
सम्भव नहीं कि समाज भर से ही सदयता दूर हो ।
अतएव ऐसे भी यवन-सम्राट कुछ हैं हो गए।
जातीय-पङ्क-कलङ्क को जो कीर्ति-जल से धो गये ।। २३१ ।।